Thursday, July 23, 2009

जी हाँ कभी ये शहर था फिर जाने क्या चली हवा

उपयोगिता तय करती है रिश्तों की नजदीकियां
आदमी भी आजकल सामान बनता जा रहा है

 व्यक्तितव से ज्यादा महत्व उपयोगिता का हो गया
 कद नापना इन्सान का आसान बनता जा रहा है

 देख कर इन्सान का इन्सान बन पाना कठिन
जिसको देखो आजकल भगवान बनता जा रहा है

लोग कहते है कि उसके दर पे है मिलता सकून
मेरे अन्दर फिर ये क्यों तूफान बनता जा रहा है

 किस के सिर पे पांव रख अब आगे बढेगा तूँ बता
 धरती का हर टुकड़ा जब आसमान बनता जा रहा है

 कल जहाँ कुछ भी ना था वहाँ आज छत तैयार है
 शायद बिना बुनियाद के मकान बनता जा रहा है

 खून का रिश्ते तो अब पानी से पतले हो गये
खून इक मिटती हुई पहचान बनता जा रहा है

पहले जो कदमों की आहट तक से था पहचानता
 अब वो मेरी शक्ल से अन्जान बनता जा रहा है

 ताकि उसकी इनायतों को भूल ना जाऊं कहीं
जख्म भर चला है पर निशान बनता जा रहा है

 जी हाँ कभी ये शहर था फिर जाने क्या चली हवा
 अब जिन्दा लाशों का ये कब्रिस्तान बनता जा रहा है

1 comment:

नीरज गोस्वामी said...

पहले जो कदमों की आहट तक से था पहचानता
अब वो मेरी शक्ल से अन्जान बनता जा रहा है
बदलते हुए हालात से पैदा हुआ दर्द आपकी इस ग़ज़ल में साफ़ झलक रहा है...बहुत खूब कहा है आपने...बधाई.
नीरज