Thursday, February 24, 2011

कामयाबी की लकीरे ही ना थी मेरे हाथ पर

किसके लिए और किसलिए रोये हम रात रात भर
 तुम रही खामोश, या तेरी ही किसी बात पर

बन के बदली तुम बरस जाते तो करते शुक्रिया
 अर्ज़ करने के सिवा मेरा बस था किस बात पर

 जिन्दगी भर ही हसीनो ने दिया धोखा हमे
 अब तो भरोसा उठ चला हसीनो की जमात पर

जो मेरी लम्बी उम्र की  करते रहे दिन में  दुआ
 रचते रहें है मेरे मरने की वो साज़िश रात भर

 इससे ज्यादा क्या हमारी बेबसी होगी सनम
 हमदर्द है जिसने दिए जख्म बात बात पर

 वो तो पढ़ लेते हैं चेहरे से ही मेरे मन की बात
 पर्दा डालें कैसे हम दिल के किसी जज्बात पर

 कोशिश भी की काबिल भी थे पर ना कुछ हासिल हुआ
 कामयाबी की लकीरे ही ना थी मेरे हाथ पर

ये तो हम है हम कि जो हर हाल में ज़िंदा रहे
 वरना कई दम तोड़ गये मेरे जैसे हालात पर

 ये किताबे वो किताबे पढ़ के हमने पाया क्या
 आज भी अटके है सब रोटी के इक सवालात पर

2 comments:

Sourabh kumar said...

बहुत ही बेहतरीन, शानदार

Unknown said...

super collection...