Friday, January 22, 2010

हम किनारे पर भी होते तो भी डूबते सनम

इससे तो अच्छा था नश्तर ही चुभा जाता कोई

मरहम लगाये बिन अगर जाना था वापिस यार को

बीमार जानता है जब कि मर्ज़ लाइलाज है

बेकार है झूठी तसल्ली देना फिर बीमार को

गर जीता जाए दिल किसीका हार कर अपना अहम

जीत से बेहतर समझ लो ऎसी हसीं हार को

माझी ही चाहता ना था कि पार पहुंचाए हमें

छोड़ गया था कीनारे पर ही वो पतवार को

हम किनारे पर भी होते तो भी डूबते सनम

बेवजह मुजरिम ना ठहरा माझी या मझधार को

जख्मो को सहलाता ना तो भी कोई ग़म ना था

और तो जख्मी ना करता जालिम मेरे प्यार को

साथ छोड़ने की बात करता था यार बार बार

हमने कहा आमीन और दिया छोड़ इस संसार को

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