Friday, November 16, 2007

आम आदमी

कल
एक सज्जन मेरे घर आये
बोले तुम्हारी मदद की दरकार है
मेरे पास एक कविता तैयार है
बड़ी मुश्किल से लिख पाया हूँ
कहीं छपवा दो इस लिये तुम्हारे पास आया हूँ
मैने पूछा ये कविता लिखने की बात तुम्हारे दिमाग में कैसे आई
बोला बात इतनी है भाई
मैने इन कवियों के लिये कविता है बनाई
तुम चाहो तो इसे तुकबन्दी कह सकते हो
लेकिन इसे छपवा दो मेरे भाई
ये मेरे भले बुरे की अकारण सोचते रहते हैं
मैं चाहुँ ना चाहुँ मेरा मार्गदर्शन करने मे लगे रह्ते है
ना चैन से रहने देते है ना खुद रहते है
अपना समय लिख कर और मेरा पढने मे व्यर्थ करते है
शायद मेरी ये कविता पढ कर इनकी समझ में आये
कि सुखी जीवन का एक ही है उपाय
कोई किसी के जीवन मे टाँग ना अड़ाये
बस इन से मुझे इतना ही है कहना
कि ये हमें हमारे हाल पे छोड़ दें
और अपनी कविताऔ का रुख हमारी ओर से हटा, अपनी ओर मोड़ लें
माना कि इन्हें लिखना आता है
पर इससे इनको
दूसरो पर टीका टिप्प्णी का अधिकार
कहाँ से मिल जाता है
सच मानो हम इन से बेहतर ही रहते हैं
और वो सब पहले से ही जानते है जो ये कहते हैं
मैने कहा मेरी मानो तुम अपने घर जाओ
बेहतर है ये कविता ना छपवाओ
ये कवि सिर्फ कहना जानते है
सुनना इन की आदत में नही
इन्हें कुछ भी कहो तो बुरा मानते हैं
ये तो दूसरों को सीख देना ही अपन धर्म मानते हैं

ये और बात है कि ये खुद कितना जानते हैं
इनका ,समझदारी से, बस इतना ही है नाता
इन्हें अपने अलावा कोई समझदार नज़र नहीं आता
क्यों ततैयों के छत्ते मे हाथ देते हो
इनको छोड़ो "आम आदमी" के बारे मे लिखो
अगर कुछ लिख लेते हो
बात उसकी समझ में आई
खुद उठा , अपनी कविता उठाई
लेकिन जब उसने पीठ घुमाई
मैने कहा ये तो बताते जाओ
तुम कौन हो भाई
मेरी ओर बिन देखे बोला
"आम आदमी"