Saturday, February 23, 2008

शहर में शीशे का घर, भूल ना कर

चाहो तो, बुझा दो तुम, चिराग सब जलते हुये
 हमने देखा है , नये सूरज को निकलते हुये॥
 अब बता, कहाँ जायेगा, दरवाजा हर इक बन्द है।
कुछ तो सोचा होता, अपने घर से निकलते हुये॥
 ये हादसो का शहर है, तो होके रहेगा हादसा
लाख तुम रखना कदम, एक एक संभलते हुये
 राहों मे ,कान्टे हटा ,किसी राह को आसान कर
 गुजरना क्या गुलशन से हर इक फूल मसलते हुये
 इस शहर में,शीशे का घर,ये भूल ना करना कभी
 इस शहर मे दिखते हैं अक्सर ,पत्थर उछलते हुये
 खून उस अरमाँ का, होते देखूँ , ये मुमकिन नहीं
जिसे दिल के पालने मे, देखा बच्चे सा पलते हुये
 अब नहीं कहते कभी, किसी यार को हम बेवफा
 बस साथ शीशा रखता हूँ इस राह मे चलते हुये
 गिरगिट पे रंग बदलने का, इल्जाम ना आता कभी
 देखते इन्सां को गर, मौका बेमौका, रंग बदलते हुये
 क्या वफा क्या दोस्ती क्या प्यार क्या है अपनापन
 मौसम के साथ देखे , सबके मायने बदलते हुये

Thursday, February 21, 2008

मुझ से गुनाह हो गया

जिन्दगी मे जब कभी , मुझ से गुनाह हो गया
 हर शख्स इक इन्साफ पसन्द, शहँशाह हो गया
 बाप का साया जो मेरे सर से उठ गया तो फिर
देखो जिसे मेरे लिये, वो ही जहाँपनाह हो गया
 माँ की नजरों में सदा मेरा स्याह भी सफेद था
 बन्द वो आँखे हुई,और सफेद भी स्याह हो गया
 मेरी तबाही से तरक्की सबकी इतनी हो गयी
फकीर तक मेरे लिये कोई बादशाह हो गया
 मुँह लगा बोतल से पीते थे ये कल की बात है
 अब तो, बोतल देखना तक, भी गुनाह हो गया
 सजा का फैसला तो पहले ही से तेरे मन में है
क्यों पूछना कब, कैसे और क्या गुनाह हो गया
 जीत ही लेता मुकदमा तुझ से मै ये प्यार का
 पर दिल ही मेरा, देकर दगा, तेरा गवाह हो गया

Wednesday, February 20, 2008

प्यार तुम से और बढ़ता जा रहा है

वक्त ज्यों ज्यों गुजरता जा रहा है
प्यार तुम से और बढता जा रहा है
 सोचा था हालात की इस चिलचिलाती धूप में
मर जायेंगी मेरी ये सारी पौध जैसी हसरतें
पर जाने कौन किस्म है,इस पौध की या मेरे रब
प्यार का पौधा तो बेहिसाब बढ़ता जा रहा है
 वक्त ज्यों…………॥
 सोचा फिर अब कह ही दूँगा मुझ को तुमसे प्यार है
जीना क्या मरना भी अब तेरे बिना दुश्वार है
 पर जाने किस हद तक आ पहुंचा है मेरा प्यार अब
 कुछ भी कहना अब तो बेमानी सा होता जा रहा है
वक्त ज्यों…………
 अब ये सोचा है कि अब से कुछ भी ना सोचेंगे हम
तूँ ही बता, इस दिल को आखिर कितना और रोकेंगे हम
इसे रोकने में आजतक मिली किस को कामयाबियां
 मेरा दिल भी, अब तो बगावत पर उतरता जा रहा है
 वक्त ज्यों ज्यों गुजरता जा रहा है
प्यार तुम से और बढ़ता जा रहा है

Monday, February 18, 2008

सच मानो दुर्योधन नहीं मरा

जाने क्यों लगता है मुझ को कभी कभी
युद्ध महाभारत का नहीं हुआ है खत्म अभी
 (1) मन के इस कुरूक्षेत्र मैं आज भी इच्छा रूपी सेनाये,
 अपने अपने अस्त्र शस्त्र,हाथों में उठायें
 कर रही हैं शंखनाद ।
हर कोई एक दुसरे पर,बलवती होना चाहता है
 विजय सब को पसन्द है हारना कोई नहीं चाहता है ।
पर आज का विदुर इस बात से क्षुब्ध है,
 कि इस युद्ध का ना कोई नियम है ना धर्म,
ये कैसा महाभारत है, कैसा धर्म युद्ध है
 कभी भी ,कोई भी अस्त्र्, हो सकता है प्रयोग,
साम दाम दण्ड भेद या इन सब का योग
छल कपट मक्कारी या फिर बेईमानी
क्योंकि, अब युद्ध जीतना ही काफी है
 कैसे जीता, ये हो चुका है बेमानी।
 (2) जाने कयों लगता है मुझे,
 कि मन के इस 'कुरुक्षेत्र' मे ,
 मैं ही अर्जुन हूँ ,
तो मै ही दुर्योधन,
मैने स्वयं ही स्वयं को मारना है
या यूँ कहो, स्वयं ही जीतना है ,स्वयं ही हारना है
 मै अर्जुन , किंकर्त्वयविमूढ सा खड़ा समझ नही पाता
कि मैं भला स्वयं ही स्वयं को कैसे मार सकता हू
और स्वयं को जिताने के लिये, स्वयं कैसे हार सकता हूँ
 (3) तभी मैं स्वयं ही 'कृष्ण' बन जाता हूँ स्वयं ही स्वयं को समझाता हूँ
 कि यदि इस युद्ध मे 'दुर्योधन' नहीं मरा, तो अनर्थ हो जायेगा
पता नहीं ये दुर्योधन कब
,किस किस दुशासन से, किस कि्स द्रोपदी का 'शीलहरण' करवायेगा ।
 यह सोच ,मै अन्दर तक काँप जाता हूँ
क्योंकि द्रोपदी भी ,मै खुद को ही पाता हूँ
 (4) पर पिछले हर अनुभव से हतोत्साहित
, मुझ अर्जुन सेअपना गाण्डीव नहीं उठता
हे कृष्ण, मै ये युद्ध अब और नहीं कर सकता
अपना समय अपनी ताकत व्यर्थ नहीं कर सकता
आपके कहने पर मैने अक्सर अपना गाण्डीव उठाया है
 तर्क वितर्क का हर तीर भी आजमाया है
 पर हर बार नतीजा , वही ढाक के तीन पात ही आया है
दिल का 'ये' दुर्योधन ना कभी हारा ना मरा
इसे हमेशा जिन्दा ही पाया है
 हे कृष्ण
अगर इस तरह दुर्योधन , मर सकता या मर गया होता
 तो ये महाभारत कब का खत्म हो गया होता
 पर ये तो आज भी अपनी मनमानी करता फिरता है,
ना इस की 'सेना ' मरती है , ना ये आप ही मरता है
 इसलिये प्रभु मुझे अब क्षमा कीजिये
और हार स्वीकार कर युद्ध समाप्त करने की अनुमति दीजिये।
 (5) हे अर्जुन,
 ऐसा नहीं कि मैं कृष्ण ये बात नहीं जानता
 ये दुर्योधन नहीं मरने वाला मै ये भी हूँ मानता
 फिर भी ये युद्ध समाप्त करने की अनुमति मै नहीं दे सकता
 क्योंकि एक बात तूँ नहीं जानता।
 ये युद्ध मेरे द्वारा ही प्रेरित है।
और इस युद्ध को जारी रखने में ही हम सब का हित है
। हे अर्जुन ,
ना भी मरा दुर्योधन तो कम से कम इस युद्ध मे उलझा तो रहेगा
 और इस तरह तब तक कई 'द्रोपदियां 'बची रहेंगी,\
 'हस्तिनापुर' भी बचा रहेगा
 (6) तब मैं अर्जुन
, अनमने मन से ही सही, फिर गाण्डीव उठाता हूँ
 और 'महाभारत' अभी जारी है
इसका शंखनाद बजाता हूं

मन के इस कुरूक्षेत्र में

जाने क्यों लगता है , मुझ को कभी कभी युद्ध महाभारत का खत्म नही हुआ अभी (1) मन के इस कुरूक्षेत्र मैं आज भी इच्छा रूपी सेनाये, अपने अपने अस्त्र शस्त्र, हाथों में उठायें कर रही हैं शंखनाद हर कोई एक दुसरे पर, बलवती होना चाहता है विजय सब को पसन्द है हारना कोई नहीं चाहता है पर आज का विदुर इस बात से क्षुब्ध है, कि इस युद्ध का ना कोई नियम है ना ही कोई धर्म, तो ये कैसा महाभारत है कैसा धर्म युद्ध है कभी भी कोई भी अस्त्र्, हो सकता है प्रयोग, साम दाम दण्ड भेद या इन सब का योग छल कपट मक्कारी या फिर बेईमानी क्योंकि, अब युद्ध जीतना ही काफी है कैसे जीता, ये हो चुका है बेमानी। (2) और जाने कयों लगता है मुझे, कि मन के इस कुरुक्षेत्र मे , मैं ही अर्जुन हूँ ,तो मै ही दुर्योधन, मैने स्वयं ही स्वयं को मारना है या कहो, स्वयं ही जीतना है ,स्वयं ही हारना है मै अर्जुन , किंकर्त्वयविमूढ सा समझ नही पाता हूँ मैं भला स्वयं ही स्वयं को कैसे मार सकता हू और स्वयं को जिताने के लिये, स्वयं कैसे हार सकता हूँ (3) तभी मैं स्वयं ही कृष्ण बन जाता हू स्वयं ही स्वयं को समझाता हूँ यदि इस युद्ध मे दुर्योधन नहीं मरा, तो अनर्थ हो जायेगा पता नहीं ये दुर्योधन कब किस किस दुशासन से, किस कि्स द्रोपदी का 'चीरहरण' ही नहीं 'शीलहरण' तक करवायेगा । यह सोच , मै अन्दर तक काँप जाता हूँ क्योंकि द्रोपदी भी , मै खुद को ही पाता हूँ (4) पर पिछले हर अनुभव से हतोत्साहित, मुझ अर्जुन से अपना गाण्डीव नहीं उठता हे कृष्ण, मै ये युद्ध अब और नहीं कर सकता अपना समय और अपनी ताकत व्यर्थ नहीं कर सकता आपके कहने पर मैने अक्सर अपना गाण्डीव उठाया है तर्क वितर्क का हर तीर भी आजमाया है परन्तु नतीजा वही ढाक के तीन पात ही आया है दिल का 'ये' दुर्योधन ना हारा ना मरा इसे हमेशा जिन्दा ही पाया है हे कृष्ण अगर इस तरह दुर्योधन , मर सकता या मर गया होता तो ये महाभारत कब का खत्म हो गया होता पर ये तो आज भी अपनी मनमानी करता फिरता है, ना इस की सेना ही मरती है , ना ये आप ही मरता है इसलिये प्रभु मुझे अब क्षमा कीजिये और हार स्वीकार कर युद्ध समाप्त करने की अनुमति दीजिये (5) हे अर्जुन, ऐसा नहीं कि मैं कृष्ण ये बात नहीं जानता और ये दुर्योधन नहीं मरने वाला , मै ये भी हूँ मानता फिर भी ये युद्ध समाप्त करने की अनुमति मै नहीं दे सकता क्योंकि एक बात तूँ नहीं जानता। ये युद्ध मेरे द्वारा ही प्रेरित है, और इस युद्ध को जारी रखने में ही हम सब का हित है सोच ना भी मरा दुर्योधन तो कम से कम इस युद्ध मे उलझा तो रहेगा और इस तरह तब तक कई द्रोपदियां बची रहेंगी, हस्तिनापुर भी बचा रहेगा तब मैं अर्जुन, अनमने मन से ही सही, फिर गाण्डीव उठाता हूँ और 'महाभारत अभी जारी है' इसका शंखनाद बजाता हूं