मेरे एक मित्र हैं
दिखने मे तो,
ठीक ठाक दिखते हैं
फिर भी ,
जाने क्यों ,
कविताएं लिखते हैं
एक दिन पूछ ही लिया
कि मित्र ये तो बता
ये यूँ ही लिखते रहते हो
या तुम्हे कुछ है मिलता
कहने लगे
तुम्हे नहीं मालूम
कविताए लिखने से मिलता है
अदभुत सुख, शान्ती और सकून
मैने कहा
मित्र , ये बात तो नहीं जमीं
तुम्हारे जीवन मे क्या सचमुच
इन तीनों की है इतनी कमी
तो कहने लगे मित्र
अगर इन तीनों का एक अंश भी
मेरे जीवन में होता
तो मै भी होता एक समान्य इन्सान
कवि नहीं होता
अरे कवि तो बनता ही है तभी
जब दिमाग मे उठी हो कोई खलबली
या फिर मन मे हो अशान्ति
कारण कोई भी हो
आफिस मे चैन ना हो
या घर में हो क्रान्ति
व्यवस्था में कमी हो या
समाज मे हो कोई खराबी
उसे हर समस्या रूपी ताले की
कविता ही नज़र आती है चाबी
मैने कहा मै समझ गया
कवि कौन बन पाता है
आदमी ,जब
अपनी सोच और अपने वातावरण मे
तालमेल नहीं बिठा पाता है
जब व्यवस्था को बदलने की क्षमता
या साहस नहीं जुटा पाता है
ना समाज को बदलना लगता है संभव
न खुद को बदल पाता है
तब वो कवि बन जाता है
मैने मित्र से फिर कहा
मित्र एक प्रश्न तो अभी भी बचा रहा
ये जो कविताए इतनी मेहनत से तूँ गढ़ता है
आखिर इन्हें कौन पढ़ता है
पढना, समझना या प्रेरणा पाना तो दूर
आम आदमी तो कविता के नाम से ही चिढता है
कवि मित्र बोले,
मित्र तूँ नहीं जानता
कवियों की जात को नहीं पहचानता
हर कवि को कोई ना कोई और कवि मिल जाता है
जब उसकी कविता कोई नही पढता
तब वो अन्य कवियों को पढ़
उन पर टीका टिप्प्णी कर आता है
उनमे से कुछ कवियो को
इस कवि का ख्याल आ जाता है
और इस तरह हर कवि को
कोई ना कोई
पाठक मिल ही जाता है