Friday, May 23, 2008

आज सारी रात उसकी सिसकिया सुनता रहा

आज सारी रात उस की सिसकिया सुनता रहा
 शायद सावन आया है मौसम बदलता लग रहा है
फिर किसी उम्मीद को आज दफन होना है जरूर
हर पल बदलता करवटें वो रात भर से जग रहा है
डर है फिर रिश्ता कोई मर ना जाये बेसबब
आज फिर बडे प्यार से मेरे गले वो लग रहा है
 आग लग जायेगी सारी दुनिया के हर कोने मे
 बाहर भड़क उठा अगर शोला जो दिल मे सुलग रहा है

ना जाने कौन मौसम मे मुझे जख्मी किया तुमने

हादसे हद से बढते जा रहे हैं
 हम अपने कद में घटते जा रहे हैं
 रफू कैसे करुंगा मैं अपना चाक दामन
रफू के साथ ही सुराख बढते जा रहें हैं
 बहुत मुश्किल है अब तो नग्न होने से बचना
 बदन के वस्त्र तो हर रोज फटते जा रहें हैं
 ना जाने कौन मौसम में मुझे ज़ख्मी किया तुमने
 कि सारे ज़ख्म ही नासूर बनते जा रहे हैं
 समय के साथ भर जाते ज़ख्म कोई गैर जो देता
 ये मेरे ज़ख्म तो हर रोज़ बढते जा रहे हैं
 दीया बुझाने का इल्ज़ाम ना ले सब्र कर थोड़ा
 हवांए तेज हैं दीये खुद ही बुझते जा रहे हैं

Thursday, May 22, 2008

कवि मित्र से

मेरे एक मित्र हैं दिखने मे तो, ठीक ठाक दिखते हैं फिर भी , जाने क्यों , कविताएं लिखते हैं एक दिन पूछ ही लिया कि मित्र ये तो बता ये यूँ ही लिखते रहते हो या तुम्हे कुछ है मिलता कहने लगे तुम्हे नहीं मालूम कविताए लिखने से मिलता है अदभुत सुख, शान्ती और सकून मैने कहा मित्र , ये बात तो नहीं जमीं तुम्हारे जीवन मे क्या सचमुच इन तीनों की है इतनी कमी तो कहने लगे मित्र अगर इन तीनों का एक अंश भी मेरे जीवन में होता तो मै भी होता एक समान्य इन्सान कवि नहीं होता अरे कवि तो बनता ही है तभी जब दिमाग मे उठी हो कोई खलबली या फिर मन मे हो अशान्ति कारण कोई भी हो आफिस मे चैन ना हो या घर में हो क्रान्ति व्यवस्था में कमी हो या समाज मे हो कोई खराबी उसे हर समस्या रूपी ताले की कविता ही नज़र आती है चाबी

मैने कहा मै समझ गया कवि कौन बन पाता है आदमी ,जब अपनी सोच और अपने वातावरण मे तालमेल नहीं बिठा पाता है जब व्यवस्था को बदलने की क्षमता या साहस नहीं जुटा पाता है ना समाज को बदलना लगता है संभव न खुद को बदल पाता है तब वो कवि बन जाता है मैने मित्र से फिर कहा मित्र एक प्रश्न तो अभी भी बचा रहा ये जो कविताए इतनी मेहनत से तूँ गढ़ता है आखिर इन्हें कौन पढ़ता है पढना, समझना या प्रेरणा पाना तो दूर आम आदमी तो कविता के नाम से ही चिढता है

कवि मित्र बोले, मित्र तूँ नहीं जानता कवियों की जात को नहीं पहचानता हर कवि को कोई ना कोई और कवि मिल जाता है जब उसकी कविता कोई नही पढता

तब वो अन्य कवियों को पढ़ उन पर टीका टिप्प्णी कर आता है

उनमे से कुछ कवियो को

इस कवि का ख्याल आ जाता है

और इस तरह हर कवि को कोई ना कोई पाठक मिल ही जाता है

Monday, May 19, 2008

साफ कहता हूँ मुझे है प्यार तुम से हो चला

प्यार रिश्तों में बसाना बहुत जरूरी है
रिश्ते हैं वरना क्या कुदरत की थोपी हुई मज़बूरी हैं
 रिश्ता कोई भी हो 'प्यार' बिन मज़ा आता नहीं
लाख सुन्दर हो मगर महक बिना
फूल हर्गिज मन को महकाता नहीं
 'प्यार' क्या होता है ये मैं बताता हूँ तुम्हें
 किस हद तक हो सकता है ये करके दिखाता हूँ
 तुम्हें तुम कौन हो, पता नहीं
 तुम कैसी हो, देखा नहीं
तुम हो कहाँ, खबर नहीं
तेरी तस्वीर ही मिल जाये ये भी तो मुकद्दर नहीं
फिर भी ये 'दिल' है,
 तुम्हे अच्छी तरह पहचानता है
हर बार तुम करती हो 'ना' हर बार ये 'हाँ' मानता है
 ना तुझे छुआ है मैने ना किया तेरा दीदार है
 बस एक फूल की महक सा महसूस किया है तुझे
और देख ले, तस्वीर तेरी, दिल में मेरे तैयार है
 और ये भी है दावा मेरा खाली 'कहना-भर' नहीं
ये है तस्वीर तेरी हूबहू
खुद से मिला और देख थोड़ी भी इधर-उधर नहीं
तुम लाख पर्दों में रहो पर मुझ से तुम छुपी रहो
 इस कदर कमजोर मेरे प्यार की नजर नहीं
अब कहो तुम, ये प्यार नहीं या प्यार का ये असर नहीं
 मै पूरे होशोहवास से हर एक आम-ओ-खास से
 साफ कहता हूँ मुझे है प्यार तुम से हो चला
और इस 'इजहारे-इश्क' का मैने किया है खुद 'गुनाह'
 भूल से कोई जुर्म मुझ से आज तक नहीं हुआ
 देनी है कोई 'सजा' तो आज ही दे दो हजूर
 फिर ना कहना 'इकबाल-ए-जुर्म' हमनें कभी नहीं किया