Friday, July 24, 2009

गैरत ज्यादा दिन बचे , मुमकिन नहीं

आप क्या महफिल में आये, उठके सब चलने लगे
 चिराग कुछ बुझने लगे , जिस्म कुछ जलने लगे

 ज्यादा पीकर के बहकते, कुछ समझ आता हमें
आप तो दो चार घूँट, पीकर ही बहकने लगे

कातिल नशा है शराब में या साकी तेरे शबाब में
उसे पी के खोये होश तो , तुझे देख सब मरने लगे

है कैसी ये शराब और महफिल का साकी कैसा है
ना पी तो लड़खड़ाये सब और पी तो संभलने लगे

मेरी ना को तूँ ना ही समझ ये झूठीमूठी ना नहीं
 हम वो नहीं जो इसरार से "ना" "हाँ "मे बदलने लगे

मेरी सोई गैरत को, ललकारा उसने इस तरह
ना चाह कर भी प्यासे ही मह्फिल से हम चलने लगे

प्यासा भी है रहना पड़ा ,खाली भी लौटे है बहुत
 महफिल के सब दस्तूर, साकी, अमल करने लगे

गैरत ज्यादा दिन बचे लगता ये   मुमकिन नहीं
जेब भी खाली हो  और जब प्यास भी बढने लगे

Thursday, July 23, 2009

कितनी तकलीफ हुई होगी, सोचो तो जरा

कितनी तकलीफ हुई होगी, उस शख्स को, तुम सोचो तो जरा
 जिसे सफर के अन्त में पता चले वो जितना चला बेकार चला
 मन्जिल हो अभी भी दूर खड़ी , और खत्म हुआ जिसका रस्ता
 मन्जिल ने हो जिस राही से कहा, नादान, तूँ नाहक दौड़ा किया
 मुझ तक कोई राह नहीं आती , तूँ मुझ तक पंहुच नहीं सकता
 मेरे चारों और मीलों खाई, कोई जिसको लाँघ नहीं सकता
 राही भी अजब दीवाना था , अपनी धुन में मस्ताना था
उस राही ने मन्जिल से कहा, काहे को रही इतना इतरा
जिस हद तक आता था रस्ता, उस हद तक तो मैं आ पंहुचा

तुम चाहती तो बाकी दूरी पल भर में ही मिट सकती थी
इक कदम बढ़ाना था तुमको, मुझको मन्जिल मिल सकती थी
 लेकिन तुमने चाहा ही नहीं, मेरे चाहने से होना था क्या
 आगे का सफर संभव ही नहीं ना तुम चाहो , ना चाहे खुदा,
आया तो बड़ी चाहत से था अबअनचाहे मन लौट चला
फिर भी तेरे जीवन में कभी इतना सूनापन आ जाये
 ना राह दिखे ना राही ही और तूँ खुद से घबरा जाये
 तब अहम किनारे पे रख के इक बार पुकारना धीरे से
 उस रोज भी तेरा दिवाना , तेरे आसपास मिल जायेगा
वीरान पड़ी तेरी राहों का, फिर से राही बन जायेगा
 आखिर तो तेरा दीवाना है तुझ पे ही जान लुटायेगा

जी हाँ कभी ये शहर था फिर जाने क्या चली हवा

उपयोगिता तय करती है रिश्तों की नजदीकियां
आदमी भी आजकल सामान बनता जा रहा है

 व्यक्तितव से ज्यादा महत्व उपयोगिता का हो गया
 कद नापना इन्सान का आसान बनता जा रहा है

 देख कर इन्सान का इन्सान बन पाना कठिन
जिसको देखो आजकल भगवान बनता जा रहा है

लोग कहते है कि उसके दर पे है मिलता सकून
मेरे अन्दर फिर ये क्यों तूफान बनता जा रहा है

 किस के सिर पे पांव रख अब आगे बढेगा तूँ बता
 धरती का हर टुकड़ा जब आसमान बनता जा रहा है

 कल जहाँ कुछ भी ना था वहाँ आज छत तैयार है
 शायद बिना बुनियाद के मकान बनता जा रहा है

 खून का रिश्ते तो अब पानी से पतले हो गये
खून इक मिटती हुई पहचान बनता जा रहा है

पहले जो कदमों की आहट तक से था पहचानता
 अब वो मेरी शक्ल से अन्जान बनता जा रहा है

 ताकि उसकी इनायतों को भूल ना जाऊं कहीं
जख्म भर चला है पर निशान बनता जा रहा है

 जी हाँ कभी ये शहर था फिर जाने क्या चली हवा
 अब जिन्दा लाशों का ये कब्रिस्तान बनता जा रहा है

Tuesday, July 21, 2009

देखता हूं आईना तो महसूस होता है मुझे

जिन्दगी के मायने हैं अब समझ आने लगे
 इक इक कर जब छोड़ के सब हमे जाने लगे

 देखता हूं आईना तो महसूस होता है मुझे
सीने मे द्फन गम हैं चेहरे पे नजर आने लगे

 हमने जिन हाथों मे अक्सर फूल थमाये कभी
 वो हाथ अब सर पे मेरे पत्थर हैं बरसाने लगे

 देखा जब सीने मे नये जख्मो की जगह नहीं
दोस्त कान्टो से पुराने जख्म सहलाने लगे

किस किस्म के बीज थे जाने कैसी जमीन थी
 पोधो पे फूलो की जगह कान्टे नजर आने लगे

 ना कहें बदकिस्मती तो क्या कहे तू ही बता
 जब दोस्त सारे दुश्मनी कि रस्म निभाने लगें

 दूरी की बात और थी नजदीक जब गये कभी
ऊन्चे कद वाले सभी बौने नजर आने लगे

यूँ मानने को मान लेता हू तेरी हर बात मैं
 वैसे  तो हर बात तेरी मुझ को बेमायने लगे

अब हमारे बचने की उम्मीद बचती है कहां
हमको बचाने वाले है खुद को बचाने मे लगे

खेत मे तू ही बता कोई फसल बचती हैं कभी
 खेत की जब बाड़ खुद ही खेत को खाने लगे