Friday, July 24, 2009

गैरत ज्यादा दिन बचे , मुमकिन नहीं

आप क्या महफिल में आये, उठके सब चलने लगे
 चिराग कुछ बुझने लगे , जिस्म कुछ जलने लगे

 ज्यादा पीकर के बहकते, कुछ समझ आता हमें
आप तो दो चार घूँट, पीकर ही बहकने लगे

कातिल नशा है शराब में या साकी तेरे शबाब में
उसे पी के खोये होश तो , तुझे देख सब मरने लगे

है कैसी ये शराब और महफिल का साकी कैसा है
ना पी तो लड़खड़ाये सब और पी तो संभलने लगे

मेरी ना को तूँ ना ही समझ ये झूठीमूठी ना नहीं
 हम वो नहीं जो इसरार से "ना" "हाँ "मे बदलने लगे

मेरी सोई गैरत को, ललकारा उसने इस तरह
ना चाह कर भी प्यासे ही मह्फिल से हम चलने लगे

प्यासा भी है रहना पड़ा ,खाली भी लौटे है बहुत
 महफिल के सब दस्तूर, साकी, अमल करने लगे

गैरत ज्यादा दिन बचे लगता ये   मुमकिन नहीं
जेब भी खाली हो  और जब प्यास भी बढने लगे

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