Monday, November 26, 2007

मृगतृष्णा

मृगतृष्णा किसी और का कोई दोष नही, बस मेरी ही नादानी है
 जाने मै कैसे भूल गया मेरा सफर तो रेगिस्तानी है
 इन रेतीली राहो में सदा सूरज को दहकता मिलना है
 बून्दों के लिये यहाँ आसमान को तकना भी बेमानी है
 बदली के बरसने की जाने उम्मीद क्यों मेरे मन में जगी
 यहां तो बदली का दिखना भी , खुदा की मेहरबानी है
 यहाँ रेत के दरिया बहते हैं कोई प्यास बुझाएगा कैसे
प्यासे से पूछो मरूथल में किस हद तक दुर्लभ पानी है
यहाँ बचा बचा के रखते हैँ सब अपने अपने पानी को
 यहाँ काम वही आता है जो अपनी बोतल का पानी है
 पानी पानी चिल्लाने से यहाँ कोई नहीं देता पानी
प्यासा ही रहना सीख अगर तुझे अपनी जान बचानी है
मृगतृष्णा के पीछे दोड़ा तो दौड़ दौड़ मर जायेगा
 पानी तो वहाँ मिलना ही नही, बस अपनी जान गंवानी है
 इसे प्यासे की मजबूरी कहूँ या चाह कहूँ दीवाने की
जब जानता है मृगतृष्णा है क्यों मानता है कि पानी है
 अब इस में तेरा दोष कहाँ , मेरी ही तो नादानी है
 तुम भी तो थी मृगतृष्णा ही मैनें समझा कि पानी है

Friday, November 23, 2007

सुन्दरबन

सुन्दरबन जाने का एक बार मौका मिला। वहाँ मैन्ग्रोव के वृक्ष बहुत अधिक हैं। हरियाली इतनी कि हरे रग के अलावा कुछ नज़र नहीं आता। वहाँ की छटा का जो मेरे मन पर प्रभाव पड़ा उसका इस कविता में कुछ चित्रण करने का प्रयास किया है। "सुन्दरबन" ये चलते चलते नाव लेके आ गई कहाँ धरती पे कैसे बन गया इक स्वर्ग सा जहाँ कुदरत के रंग देख कर मैं दग रह गया मानो जहाँ में सिर्फ हरा रंग रह गया रंग एक रूप एक बढने की इक रफ्तार है नख से ले कर शिख तलक हर वृक्ष एकसार है इतने सलीके से हसीना ज़ुल्फें भी संवारे ना जितने सलीके से हज़ारों वृक्ष हैं उगे यहाँ किस कदर सज सकती है बस एक रग से दुल्हन देखना हो गर किसी को आके देखे "सुन्दरबन"

Friday, November 16, 2007

आम आदमी

कल
एक सज्जन मेरे घर आये
बोले तुम्हारी मदद की दरकार है
मेरे पास एक कविता तैयार है
बड़ी मुश्किल से लिख पाया हूँ
कहीं छपवा दो इस लिये तुम्हारे पास आया हूँ
मैने पूछा ये कविता लिखने की बात तुम्हारे दिमाग में कैसे आई
बोला बात इतनी है भाई
मैने इन कवियों के लिये कविता है बनाई
तुम चाहो तो इसे तुकबन्दी कह सकते हो
लेकिन इसे छपवा दो मेरे भाई
ये मेरे भले बुरे की अकारण सोचते रहते हैं
मैं चाहुँ ना चाहुँ मेरा मार्गदर्शन करने मे लगे रह्ते है
ना चैन से रहने देते है ना खुद रहते है
अपना समय लिख कर और मेरा पढने मे व्यर्थ करते है
शायद मेरी ये कविता पढ कर इनकी समझ में आये
कि सुखी जीवन का एक ही है उपाय
कोई किसी के जीवन मे टाँग ना अड़ाये
बस इन से मुझे इतना ही है कहना
कि ये हमें हमारे हाल पे छोड़ दें
और अपनी कविताऔ का रुख हमारी ओर से हटा, अपनी ओर मोड़ लें
माना कि इन्हें लिखना आता है
पर इससे इनको
दूसरो पर टीका टिप्प्णी का अधिकार
कहाँ से मिल जाता है
सच मानो हम इन से बेहतर ही रहते हैं
और वो सब पहले से ही जानते है जो ये कहते हैं
मैने कहा मेरी मानो तुम अपने घर जाओ
बेहतर है ये कविता ना छपवाओ
ये कवि सिर्फ कहना जानते है
सुनना इन की आदत में नही
इन्हें कुछ भी कहो तो बुरा मानते हैं
ये तो दूसरों को सीख देना ही अपन धर्म मानते हैं

ये और बात है कि ये खुद कितना जानते हैं
इनका ,समझदारी से, बस इतना ही है नाता
इन्हें अपने अलावा कोई समझदार नज़र नहीं आता
क्यों ततैयों के छत्ते मे हाथ देते हो
इनको छोड़ो "आम आदमी" के बारे मे लिखो
अगर कुछ लिख लेते हो
बात उसकी समझ में आई
खुद उठा , अपनी कविता उठाई
लेकिन जब उसने पीठ घुमाई
मैने कहा ये तो बताते जाओ
तुम कौन हो भाई
मेरी ओर बिन देखे बोला
"आम आदमी"