Friday, November 23, 2007

सुन्दरबन

सुन्दरबन जाने का एक बार मौका मिला। वहाँ मैन्ग्रोव के वृक्ष बहुत अधिक हैं। हरियाली इतनी कि हरे रग के अलावा कुछ नज़र नहीं आता। वहाँ की छटा का जो मेरे मन पर प्रभाव पड़ा उसका इस कविता में कुछ चित्रण करने का प्रयास किया है। "सुन्दरबन" ये चलते चलते नाव लेके आ गई कहाँ धरती पे कैसे बन गया इक स्वर्ग सा जहाँ कुदरत के रंग देख कर मैं दग रह गया मानो जहाँ में सिर्फ हरा रंग रह गया रंग एक रूप एक बढने की इक रफ्तार है नख से ले कर शिख तलक हर वृक्ष एकसार है इतने सलीके से हसीना ज़ुल्फें भी संवारे ना जितने सलीके से हज़ारों वृक्ष हैं उगे यहाँ किस कदर सज सकती है बस एक रग से दुल्हन देखना हो गर किसी को आके देखे "सुन्दरबन"