शीशा ही नही टूटा, अक्स भी टूटा है । पत्थर किसी अपने ने बेरहमी से मारा है॥ जो जख्म है सीने पे दुश्मन ने लगाये हैं। पर पीठ में ये खंजर अपनो ने उतारा है।
Friday, November 23, 2007
सुन्दरबन
सुन्दरबन जाने का एक बार मौका मिला। वहाँ मैन्ग्रोव के वृक्ष बहुत अधिक हैं। हरियाली इतनी कि हरे रग के अलावा कुछ नज़र नहीं आता। वहाँ की छटा का जो मेरे मन पर प्रभाव पड़ा उसका इस कविता में कुछ चित्रण करने का प्रयास किया है।
"सुन्दरबन"
ये चलते चलते नाव लेके आ गई कहाँ
धरती पे कैसे बन गया इक स्वर्ग सा जहाँ
कुदरत के रंग देख कर मैं दग रह गया
मानो जहाँ में सिर्फ हरा रंग रह गया
रंग एक रूप एक बढने की इक रफ्तार है
नख से ले कर शिख तलक हर वृक्ष एकसार है
इतने सलीके से हसीना ज़ुल्फें भी संवारे ना
जितने सलीके से हज़ारों वृक्ष हैं उगे यहाँ
किस कदर सज सकती है बस एक रग से दुल्हन
देखना हो गर किसी को आके देखे "सुन्दरबन"
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4 comments:
सुन्दरवन के शेरों के संबंध में बहुत सुना है, ब्रम्हपुत्र के वादियों में बसा यह वन सचमुच में रमणीक है इन कविताओं नें तो जीवंत कर दिया प्रकृति को.
www.aarambha.blogspot.com
bahut achhi hai
प्रकृति के बीच जाकर कवि-मन कितना खुश हो गया होगा, आपकी कविता पढ़ने से पता चलता है. साथ में हमें मौका देता है, कवि-मन की कोमलता महसूस करने का.
बहुत सुंदर है आपका सुंदरवन....
सरल शब्दों में एक अच्छे रचना. वाकई, कवि जो देख सकता है, वह आम इंसान के बस की बात नहीं है. ऐसी अद्भुत रचना पेश करने के लिए धन्यवाद.
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