Saturday, February 26, 2011

चाह कर भी हम उसे इस हद तक कभी ना चाह सके

चोट कोई दिल पे लग जाये या जख्मी जिस्म हो  
दर्द दोनों में ही लाजिम है बेशक अलग अलग

चाह कर भी हम उसे इस हद तक ना चाह सके कभी 
उसकी भी है  हद अलग और  मेरी भी है जिद्द अलग

वो जरूरत को  मेरी ना समझ पायेगा कभी 
सारे हैं मुझसे अलग या फिर हूँ मै सबसे अलग

 जो भी दे सकता था मैंने यार को सब कुछ दिया
 ये और बात है कि थी कुछ उसकी जरुरत अलग

 किस तरह और कब तलक वो साथ दे पाता मेरा
 उसकी थी चाहत अलग कुछ मेरी भी चाहत अलग

ये भी हुई कोई दोस्ती और ये भी कोई प्यार है
किया यार को भी शर्मसार हुए खुद भी शर्मिंदा अलग

कर के फरमाइश बता हम को क्या हासिल हुआ
 जब भी मिली ना ही मिली. शर्मिंदगी हुई अलग

एक राह  साथ चलना  ज्यादा दिन मुमकिन नही
जब तेरी भी मंज़िल अलग  मेरी भी मंजिल अलग  

Friday, February 25, 2011

क्यों होता है ऐसा ऐसा क्यों होता है

क्यों होता है ऐसा
 ऐसा क्यों होता है
 
 जरा सा देकर चाहते हैं एहसान बड़ा हो जाए
 चंद ईंटो और पत्थर से कोई ताज खडा हो जाए
 
 महबूब मिले कोई ऐसा जो हम पे प्यार लुटाये
 दोस्त मिले तो ऐसा जो हम पे जान दे जाए
 
 हींग लगे ना फिटकरी और रंग भी आये चोखा
 मेरी मानो ऎसी सोच है खुद को देना धोखा
 
 जितना गुड डालोगे उतना ही तो मीठा होगा
ऐसा ही होता आया है सदा ही ऐसा होगा
 
जाने क्यों फिर फिर भी हर कोई गधा ढूंढता ऐसा
जो वजन तो पूरा ढोए लेकिन घास जरा ना  खाये

 क्यों होता है ऐसा
 ऐसा क्यों होता है

Thursday, February 24, 2011

कामयाबी की लकीरे ही ना थी मेरे हाथ पर

किसके लिए और किसलिए रोये हम रात रात भर
 तुम रही खामोश, या तेरी ही किसी बात पर

बन के बदली तुम बरस जाते तो करते शुक्रिया
 अर्ज़ करने के सिवा मेरा बस था किस बात पर

 जिन्दगी भर ही हसीनो ने दिया धोखा हमे
 अब तो भरोसा उठ चला हसीनो की जमात पर

जो मेरी लम्बी उम्र की  करते रहे दिन में  दुआ
 रचते रहें है मेरे मरने की वो साज़िश रात भर

 इससे ज्यादा क्या हमारी बेबसी होगी सनम
 हमदर्द है जिसने दिए जख्म बात बात पर

 वो तो पढ़ लेते हैं चेहरे से ही मेरे मन की बात
 पर्दा डालें कैसे हम दिल के किसी जज्बात पर

 कोशिश भी की काबिल भी थे पर ना कुछ हासिल हुआ
 कामयाबी की लकीरे ही ना थी मेरे हाथ पर

ये तो हम है हम कि जो हर हाल में ज़िंदा रहे
 वरना कई दम तोड़ गये मेरे जैसे हालात पर

 ये किताबे वो किताबे पढ़ के हमने पाया क्या
 आज भी अटके है सब रोटी के इक सवालात पर

Wednesday, February 23, 2011

यार से मतलब है हम को यार से ही वास्ता

जीने कीकुछ वजह नहीं लेकिन है ये भी सच सनम
कोई बहाना चाहिए जाने के लिए संसार से

 प्यार में तो चेहरा खुशगवार होना चाहिए
फिर तुम नज़र आते हो क्यों बेजार से बीमार से

 जिनको तलाश है वो जा के ढूंढ़ ले अपना खुदा
हमको तो गरज है सिर्फ यार के दीदार से

 उनको देखे से  था चेहरा खुशग्वार हो उठा 
  वो समझ बैठे कि हम झूठ में बीमार थे 

 थे यार से मतलब है हम को यार से ही वास्ता
 ना खुदा से लेना कुछ ना लेना कुछ घरबार से

हौले हौले परत दर परत पर्दा उठना लाजिमी था
पर यार की जिद है कि हर पर्दा उठे रफ्तार से