Friday, November 21, 2008

सब के सब व्यापारी हो गये प्यार रहा ना जमाने मॆ

सब ने दाम लगा रखे हॆं प्यार किसीसे निभाने के
 सबके सब व्यापारी हो गये प्यार रहा ना जमाने में
 प्यार किसीका पाकर भी खुशी किसी को कॆसे हो
 उम्र गुजर जाती हॆ महंगे प्यार का मोल चुकाने मे
 पहले लिख लेते थे गज़ले शेर य नज्मे मिन्टॊ मे
अब तो शब्द नहीं मिलते हॆं शब्दों भरे खज़ाने में
 तुमने लॊटाया प्यासा तो प्यासा ही मर जाउंगा
 सारी दुनिया छोड्के पहुंचा हूं तेरे मयखाने में
 भंवरा रस ले उडा फूल का जल मरा शमा पे परवाना
 फर्क बहुत होता हॆ यारो भंवरे ऒर परवाने मे
 कोई नहीं हॆ अपना मेरी मान किसी को ना आज़मा
 उम्र गंवा बॆठेगा सारी इक इक को आज़माने में
 कभी ठेस लगी तो पता चलेगा रिश्तों की मज़बूती का
 बिना ठेस तो शीशा भी सालॊं चलता हॆ जमाने में

सब के सब व्यापारी हो गये प्यार रहा ना जमाने मॆ

सब ने दाम लगा रखे हॆं प्यार किसीसे निभाने के
 सबके सब व्यापारी हो गये प्यार रहा ना जमाने में
 प्यार किसीका पाकर भी खुशी किसी को कॆसे हो
उम्र गुजर जाती हॆ महंगे प्यार का मोल चुकाने मे
 पहले लिख लेते थे गज़ले शेर य नज्मे मिन्टॊ मे
 अब तो शब्द नहीं मिलते हॆं शब्दों भरे खज़ाने में
 तुमने जो लॊटाया प्यासा तो प्यासा ही मर जाउंगा
 सारी दुनिया छोड्के पहुंचा हूं तेरे मयखाने में
 भंवरा रस ले उडा फूल का जल मरा शमा पे परवाना
 कुछ तो फर्क किया होता भंवरे ऒर परवाने मे
 कोई नहीं हॆ अपना मेरी मान किसी को ना आज़मा
 उम्र गंवा बॆठेगा सारी इक इक को आज़माने में
 कभी ठेस लगी तो पता चलेगा रिश्तों की मज़बूती का
 बिना ठेस तो शीशा भी सालॊं चलता हॆ जमाने में

Wednesday, November 19, 2008

इन्सा की कोई कद्र नहीं ओर पत्थर पूजते फिरते हो

भूखा प्यासा ठुकराया सा जीना भी कोई जीना हॆ
चुपडी ना सही रूखी तो मिले मतलब तो हॆ खाने से
 फिसलन भरी राहों में अक्सर कदम फिसल ही जाते हॆं
 किसे नहीं मालूम सभलना बेहतर हॆ गिर जाने से
 जिन राहों मे फिसलन हो वहां कदम संभल के रखना तुम
 संभल के चलना ह्यी बेहतर हॆ गिर कर के पछताने से
 बाज़ार नहीं उतरा तो क्या पता कि कीमत कितनी हॆ
 हासिल क्या हॆ हॆ घर बॆठे खुद अपने दाम लगाने से
 इस जान के जाने से ही तेरे दर पे आना छूटेगा
 दुआ करो मरने की मेरे गर तंग हो मेरे आने से
 आग नहीं जो डाल के पानी बुझा रहे तुम इसको
 ये इश्क हॆ ऒर भी भडकेगा कहां दबता हॆ ये दबाने से
 ये दामन का दाग नहीं जो धोने से मिट जायेगा
 इक बार लगा जो इज्जत पे तो मिटता नहीं मिटाने से
 ये आदम का बच्चा हॆ ठोकर खाकर ही सीखेगा
कहां समझता हॆ कोई ऒरो के समझाने से
 इन्सां की कोई कद्र नही ऒर पत्थर पूजते फिरते हो
 कहां तुझे रब मिलना हॆ यूं उल्टे रस्ते जाने से

Tuesday, November 18, 2008

पीकर मरना ही बेहतर हॆ यूं प्यासा जीते जाने से

आज तो पीकर ही जायेंगे हम तेरे मयखाने से
सुना हॆ सारे लॊट चुके जो भी तेरे दीवाने थे

 मांगने से ना मिले तो हक छीन के लेना पडता हॆ
उठा ले जायेगे जाम-ओ-मीना तेरे मयखाने से

 हॆ कॊन सा तेरा पॆमाना जो जूठा अब तक हुआ ना हो
क्यों इनको बचाता फिरता हॆ मेरे हॊठॊं तक आने से

 मालूम हॆ साकी तेरे इक इक घूंट की कीमत होती हॆ
हम ने मना किया कब हॆ पूरे दाम चुकाने से

 नहीं आज तो कल दे ही देगे हर पॆमाने की कीमत
कॊन मना करता हॆ जालिम तेरा कर्ज़ चुकाने से

 दो घून्ट हमें दे दे रब्बा चाहे दो सांसे कम कर दे
 पीकर मरना ही बेहतर हॆ यूं प्यासा जीते जाने से

Thursday, November 6, 2008

खाली पॆमाने की तरह यूं ना ठुकरा तूं हमें

इस तरह हिम्मत ना हारो राह बाकी हॆ अभी
 ये तो पडाव हॆ कहां मन्जिल पे पहुचे हॆं अभी
 इस तरह थक हार कर हॊंसला क्या छोडना
मंजिल दिखाई दी तो हॆ मंजिल मिली कहां अभी
आस्मां तक पहुंचने की हमने खाई थी कसम
पांव तले जमीन भी नहीं ठीक से आई अभी
खाली पॆमाने की तरह यूं ना ठुकरा तू हमे
काम आऊंगा लगेगी प्यास तुझको फिर कभी

Tuesday, November 4, 2008

कत्ल करने का इरादा ही नहीं रखता अगर

कत्ल करने का इरादा ही नही रखता अगर
 आस्तीनॊ मे तू खन्जर को छुपाता क्यों हॆ
 दर्द को राज ही रखने की जो खाई हॆ कस्म
 आख मे आंसू का कतरा कोई आता क्यों हॆ
 प्यार हॆ तुझको तो फिर आके गले लगजा मेरे
 प्यार हॆ प्यार हॆ कह कह के सताता क्यों हॆ
 तू मेरा दोस्त हॆ माना मगर इतना तो बता
 मेरे रकीबों से तूं रखता कोई नाता क्यों हॆ
अब यहां कॊन तेरे दर्द मे होगा हमदर्द
किस्से तु गम के किसीको भी सुनाता क्यों हॆ
सबके हाथों में हॆ नश्तर नहीं मरहम कोई
जख्म तू खोल के इन सब को दिखाता क्यों हॆ
 मॆं जहां पहुचा हूं इक बार वहां आके तो देख
सब्र के पाठ मुझे यूं ही पढाता क्यों हॆ

Friday, October 24, 2008

दिलो मे गांठ रखके रिश्ते निभाये नहीं जाते

बलबूते ऒरों के अन्धेरे मिटाये नहीं जाते
अन्धेरॊं मे ज्यादा दूर तक साये नहीं जाते
 बिना रहबर तू कॆसे राह ढूंढेगा ए मुसाफिर
 पथरीली राह कदमो के निशां पाये नही जाते
 नक्शे देख पढ्कर ही तू अपनी ढून्ढ ले मन्जिल
 ले चलें थामकर उंगली वो अब पाये नहीं जाते
 नही जज्बात दिल मे तो यूंही मिलने से क्या हासिल
 दिलो मे गान्ठ रखके रिश्ते निभाये नही जाते
 ये सपने हॆ तो फिर रातो की खातिर ही बचा रखो
 उजाले मे खुली आंखों ये दिखलाये नहीं जाते
 अन्धेरो मे जरूरत रोशनी की पड ही जाती हॆ
 यूं जुगनु देखकर चिराग बुझाये नही जाते
 चॊराहो मे चिरागों से करेगे रोशनी वो क्या
 दिये इक दो भी जिनसे घर मे जलाये नही जाते
 चॊराहों मे इंतजाम-ए-रोशनी कीजे मगर समझो
 घरो में जलते दीये भी तो बुझाये नहीं जाते

Monday, October 20, 2008

इक कदम गलत पडा क्या जिन्दगी की राह में

जिन्दगी के अर्थ हॆं जब से समझ आने लगे
 जिन्दगी तेरे नाम से हम तो घबराने लगे
 हम से हुआ गुनाह तो बात सबकी बन गयी
 कल के गुनाह्गार मुनसिफ बन के इतराने लगे
 इक कदम गलत पडा क्या जिन्दगी की राह मे
 खुद लडखडाते लोग हमें संभलना सिखलाने लगे
 इक हवा के झॊके ने किया तिनका तिनका आशियां
जिसको बनाने मे थे हमको कितने जमाने लगे
 क्या गिला अब कीजीये ऒर क्या शिकायत हम करें
 अप को जब हम से ज्यादा गॆर हॆं भाने लगे
 ये भी कोई यार का यार से मिलना हुआ
यार जब आते ही रट जाने की लगाने लगे
आप तो सुनते ही मेरी बात मुस्काने लगॆ
जाने किस मुश्किल से मुश्किल हम थे बतलाने लगे
 दोस्तो ने दोस्ती मे गम दिये तो इस कदर
 जितने दुश्मन थे हमें अपने नजर आने लगे

Thursday, October 16, 2008

पेट भरना ही नही काफी हॆ जीने के लिये

बाद तेरे इक इक कर सब राज यूं खुलते गये
 लगते थे जो अपने वो सब गैर निकलते गये
 ना कोई आता हॆ ऒर ना ही बुलाता हॆ हमे
 दामन तो क्या सब नजरे भी बचा के निकलते गये
 बाद तेरे सिर्फ गैरो से रहा नाता मेरा
अपने तो ले ले चुस्कियां हमपे ही हंसते गये
 मेरी जरुरत को ना समझा है न समझेगा कोई
 या यूं कहो कि जानकर अन्जान सब बनते गये
 पेट भरना ही नही काफी है जीने के लिये
 हालाकि जीने के लिये हम पेट ही भरते गये
 देखले इस अन्न ने क्या दिखलाया रंग तेरे बिना
 तन से हम जिन्दा रहे पर मन से हम मरते गये
 व्यस्त थे ऒर मस्त थे अपने अपने घर में सब
दूर रहने के बहाने सब को ही मिलते गये
 जिन की याद मे गुजारे हम ने अपने रात दिन
 हमें खाली वक्त याद कर वो रस्म पूरी करते गये
 बन के बेगैरत ही रखी हमने सबसे दोस्ती
 देख मजबूरी मेरी सब और भी तनते गये
 ना तो रिश्तेदार ना मेहमान सा आया कोई
घर मेरे जो आये इक अहसान सा करते गये
 रिश्ता बस तब तक चला नाता तब तक ही निभा
 जैसा वो चाहते थे वैसा जब तक हम करते गये

Wednesday, October 15, 2008

सपनो मे बुला पाऊं तुम को इतना तो दो अधिकार प्रिये

माना कि तुम खफा हो मुझसे, लेकिन खुद पे कुछ रहम करो
 वर्षा ॠतु मे मिट जाती है वर्षो की तकरार प्रिये
 ऐसी ही शरमाती रही तो मै क्या तुम भी पछताओगी
शरम शरम मे मत कर लेना वर्षा ॠतु बेकार प्रिये
 मुझ को तुम से प्यार बहुत है मैने सौ सौ बार कहा है
मेघ साक्षी रख के तुम भी कह दो ये इक बार प्रिये
 सावन के मौसम मे लगा हर ओर उमंगो का मेला
आओ हम भी दबी उमंगे कर डाले साकार प्रिये
 सोच सोच में बिता दिए है कितने सावन तुमने
 अब तक मत सोचो जो भी करना है कर डालो इस बार प्रिय 
डर के जिये तो खाक जिये ऐसा जीना भी क्या जीना
 इस पार बुलाता रहूँ तुम्हे तुम सदा रहो उस पार प्रिये
 मुझ बिन जीना तेर जीना हो सकता हॆ कुछ बेहतर हो
 तुम बिन जीना मेरा जीना हुआ बहुत दुश्वार प्रिये
 तेरी सोच तक अच्छा नही लेकिन तेरा दीवाना हूं
ऐसा वैसा जैसा भी हूं अब कर भी लो स्वीकार प्रिये
 तुम ना झूलो बांहो मे मेरी ना मुझ को अंगीकार करो
सपनो मे बुला पांऊ तुमको इतना तो दो अधिकार प्रिये
 चलो छोडो हटाओ बात मेरी नही तुम से कुछ होने वाला
 घर जाओ गीले कपडे बदलो कौफी पीकर आराम करो
तुम बुरी तरह से भीगी हो, हो जाओ ना तुम बीमार प्रिये

Monday, September 29, 2008

ये कैसा तेरा प्यार प्रिय

रिम झिम रिम झिम पानी बरसा आया सवन मास प्रिय
 हरियाली छा गयी बुझी तप्ती धरती की प्यास प्रिय
 कभी तो पानी बरसा जम के प्ड र्ही कभी है फुहार प्रिय
 बादल ने ढक लिया सूर्य ना सकेए वो तुझे निहार प्रिय
 क्या देख रही तीज के झूले झूल रही उन सखियों को
 इन बाहों मे तुम झूलो तो मने तीज त्यौहार प्रिय
 वर्षा की बून्दो से देखो भीग गया अंग अंग अपना
 तन तो शीतल हुआ मगर अब मन मे लगे अंगार प्रिय
 तुम शरमाती सकुचाती सिमटी हुई गीले आंचल मे
 ये मौसम और दूरी इतनी ये कैसा है प्यार प्रिय
 नील गगन में कारे बाद्ल कोने कोने तक फैले है
देखो क्या रंग लाये तेरे गाये मेघ मल्हार प्रिय
 कैसी भी हो ॠतु सुहानी पलक झपकते बीतेगी
मै हूँ तुम हो मौसम है फिर किस का है इन्तजार प्रिय
 गोरा बदन और भीगा आंचल चेहरे पे वर्षा की बून्दे
 इस से बेहतर क्या होगा किसी युवती का श्रृंगार प्रिय
 माना कि तुम मुझ से खफा हो पर खुद पे कुछ रहम करो
 वर्षा ॠतु में मिट जाती है वर्षों की तकरार प्रिय

Thursday, September 25, 2008

मेरे जीवन में तुम

तुम मेरी पहली कविता हो जो कोरे मन पे मैने लिखी
 जो ना कागज़ पे उतर सकी ना होठो पे आ पाई कभी
 तुम हो मेरी पहली रचना जो मन ही मन में रच डाली
जो मन ही मन तो गाता रहा पर तुम को सुना पाया ना कभी
 तुम वो पहली तस्वीर हो जिसका अक्स उतारा था दिल ने
 पर दिल के शीशे से बाहर मै जिस को ला पाया ना कभी
 तुम वो पहली कली हो जो मेरे मन को थी लगी भली
 पर जब तक मै घर ला पाता किसी और के हार मे गुंथी मिली
 तुम वो पहला स्वप्न हो जिसको जागती आँखो ने देखा
जो स्वप्न हकीकत बन ना सका और जीत गयी भाग्य रेखा
 यूँ देखो तो लगता हे मेरे जीवन मे तुम कहीं नही
पर सच तो ये है तुम मेरे ह्र्दय मे हर पल बसी रही
 गंगा तो दिखाई दी सब को यमुना भी दिखाई देती रही
 मेरे जीवन संगम में पर तुम सदा सरस्वती बन के बही
 माना तब भाग्य जीत गया पर मै अब तक भी नही हारा
 इक रोज़ तुम्हे पा ही लूगा अभी जन्म कहा बीता सारा
 तुम आज भी पहली कविता हो तुम आज भी हो पहली रचना
 आखों में जो अब तक बसा है वो तुम आज भी हो पहला सपना
 तुम आज भी पहली कली सी मेरा मन आँगन महकाती हो
हो आज भी तुम वो मूरत जो मेरे मन में पूजी जाती हो
 तुम आज भी मेरा प्यार हो जिस्पे तन मन वार मै सकता हूँ
और प्यार तेरा पाने को कर हर सीमा पार मै सकता हूं
 तुम पहली कविता हो मेरी तो अन्तिम गीत भी तुम बनना
 हो कोई जन्म मुझे तेरे सिवा नही और किसी को भी चुनना

Wednesday, September 24, 2008

खुशनसीब वो हॆ तू जिस के भी पास आ गई

चान्द बोला मुझसा सुन्दर है कोई दूजा बता
मुझसे मिलती है धरा को चान्दनी जैसी छटा
तारे बोले हमसा सुन्दर है कहाँ कोई दूसरा
 तारों भरे आकाश से सुन्दर नजारा और क्या
 फूल बोले हम हैं सुन्दर हम से महका से ये जहाँ
 बोला गुलाब मुझसा रंग रूप ढूंढ के तो ला
 मेरा मन तब कल्पना की वो उडान भर गया
चान्द से भी सुन्दर चेहरे का तसुव्वर कर गया
 गुलाब से भी शोख रंग रूप उसका सोच डाला
 आँखे गहरी झील सी जो उतरा बस उतर गया
नयना कजरारे मिले तो इतने कजरारे मिले
 नयनों में काजल लगा तो और काला पड गया
 जुल्फें इतनी रेशमी ढूंढी कि सर पे जब कभी
 डाला दुपटटा बाद मे पहले नीचे सरक गया
माथे पे बिन्दी की जगह उगता सूरज धर दिया
होठों को दी मिठास यूं जिसने चखा वो तर गया
 देखते ही देखते लाजवाब सूरत बन गयी
चेहरे पे नूर इतना कि सूरज भी फीका पड गया
 इस इरादे से कि हर शै से वो सुन्दर बने
सारे जहाँ की सुन्दरता इक चेहरे में ही भर गया
 मैं तो अपनी सोच में कुछ और था बना रहा
मुझ को क्या खबर थी तेरा अक्स है उभर रहा
बस अब धडकने के लिये इक दिल की ही तलाश थी
 उस जगह पे मैने अपने दिल का टुकडा धर दिया
 देख के सूरत तेरी चान्द भी शरमा गया
 और गुलाब के भी माथे पर पसीना आ गया
 रंग रूप देख तेरा मेनका घबरा गयी
स्वर्ग की ये अप्सरा धरती पे कैसे आ गई
 बदनसीबी क्या है और होती है खुशनसीबी क्या
 देखते ही तुझको मुझे बात समझ आ गई
 बदनसीब है वो तू जिससे भी दूर हो गई
 खुशनसीब वो है तूँ जिसके भी पास आ गई

Tuesday, September 23, 2008

जो ना होना चाहिये था आज वो ही हो गया

आपने वादा किया आये नहीं तो क्या हुआ
कुछ पल तो अच्छे कट गये इस इंतजार में
 शायद तुझे अहसास है कि मिलने में मज़ा कहां
जो मज़ा आता है अपने यार की इंतजार में
 आप फिर वादा करो मै फिर करुँगा इंतजार
 उम्र सारी काट सकता हूँ तेरे इंतजार में
 जीवन हॆ एसे मोड पे कॊई साथ दे सकता नहीं
साया भी साथ छोड गया कया गिला फिर यार से
 यूँ भी हर वादा तो किसी का वफा होता नही
 जो तुम ना पूरे कर सके वादे वो बस दो चार थे
 तूँ है मेरा प्यार चाहे लाख तडपाये मुझे
मै खफा होता नहीं हरगिज़ भी अपने प्यार से
 क्या पता मजबूरियां कितनी रही होंगी तेरी
यार यूँ ही बेवफाई कयों करेगा यार से
 लोग कहते है निशाना है बहुत कच्चा तेरा
 मै हुआ घायल बता फिर कैसे तेरे वार से
 तेरा इरादा तो ना था कि कत्ल तुम करते मुझे
 शायद मै आया सामने खुद ही तेरी तलवार के
 मै तो कह सकता नहीं तुमको कभी भी बेवफा
लाख दीवाना मुझे कहता रहे संसार ये
 जो ना होना चाहिये था आज वो ही हो गया
रहना चाहता था किनारे आ गया मंझधार में
 फर्क शायद कम ही होता है मोहब्ब्त में तेरी
पहुंचना उस पार में या डूबना मंझधार में
 अब खौफ डूबने का क्या मै पहले से तैयार हूँ
अचरज तब होगा अगर जो पहुंच गया पार मे

Wednesday, July 16, 2008

कर सको मेरी कम प्यास तो फिर तुम मेरे मीत बनो

मैं मीत नहीं ऐसा जिसका हर कोई साथ निभा पाये
ना ही हूं ऐसा मीत कि जो भी मिला उसी संग हो जाये
तुम थाम के मेरा हाथ चल सको खुले मे साथ
 तो फिर तुम मेरे मीत बनो
 जीवन भर हारा हूँ बाजी मैं यहाँ वहाँ इससे उससे
 नहीं खेल मे मेरे कमी रही बस जीत गये सब किस्मत से
 है दाव पे अब तो हृदय लगा जिसे हारना चाह्ता हूँ तुमसे
 तुम भी चाहो ये जीत , हो तुम को भी मुझ से प्रीत
 तो फिर तुम मेरे मीत बनो
 उस बदली से भी क्या हासिल जो ना गरजे ना बरसे ही
 ऐसे बादल के साये तले दो बूँद को धरती तरसेगी
तुम छोड ऊँचा आकाश आ सको जो मेरे पास
 कर सको मेरी कम प्यास तो फिर तुम मेरे मीत बनो
 मुझ को तो चाहत है तेरे बाहूपाश मे आने की
आलिंगन कर होठों को चूम अधरो मे आग लगाने की
 गर तू भी ऐसा ही चाहे आतुर हो अगर तेरी बाहें
मेरा आलिंगन करने को तो फिर तुम मेरे मीत बनो

Thursday, July 10, 2008

बोलो या ना बोलो तुम पर अपने मन को टटोलो तुम

बोलो या ना बोलो तुम
 पर अपने मन को टटोलो तुम
आजादी के इन वर्षों मे क्या खोया है क्या पाया है
 अब तो सब मे होड लगी है जीवन स्तर ऊंचा हो जाये
 बस पैसा ही पैसा आये चाहे मर्जी जैसा आये
माल पराया हडप के आये हक किसी का झड़प के आये
 रिश्वत्खोरी से वो आये टैक्स की चोरी से वो आये
बस पैसा ही पैसा आये कुछ फर्क नहीं वो कैसा आये
सच की राह पे चलने वाले लिये नंगे पांव मे छाले
 विनती कर कर पूछ रहे है बोलो या ना बोलो तुम ………॥
 परिवार हमारे टूट रहे हैं रिश्ते नाते छूट रहे है
हम को पैदा करने वाले वृद्ध आश्रम ढूंढ रहे हैं
सब जग जीते तुम से हारे बूढे और लाचार तुम्हारे
 माँ बाप ये तुम से पूछ रहें हैं बोलो या ना बोलो तुम्………।
 वर्षों तक भी समय नही मिलता अपनो से मिलने का
 लेकिन वक्त बहुत बचत है टीवी से नहीं हिलने का
 दूर गाँव मे बैथे अपने , लिये तुम से मिलने के सपने
 चिठठी लिख लिख पूछ रहे है बोलो या न बोलो तुम् ………।
 हया खो गयी शर्म खो गयी धर्म खो गया कर्म खो गया
ऐसी चली हवा पश्चिमी सारा भारत पश्चिम हो गया
अब पूरव से उगता सूरज निस दिन तुम से पूछा करेगा
बोलो या ना बोलो तुम पर अपने मन को टटोलो तुम
 अजादी के इन वषों मे क्या खोया है क्या पाया है

Tuesday, July 8, 2008

बोलो या ना बोलो तुम पर अपने मन को टटोलो तुम

बोलो या ना बोलो तुम पर अपने मन को टटोलो तुम आजादी के इन वर्षों मे क्या खोया है क्या पाया है अब तो सब मे होड लगी है जीवन स्तर ऊंचा हो जाये बस पैसा ही पैसा आये चाहे मर्जी जैसा आये माल पराया हडप के आये हक किसी का झड़प के आये रिश्वत्खोरी से वो आये टैक्स की चोरी से वो आये बस पैसा ही पैसा आये कुछ फर्क नहीं वो कैसा आये सच की राह पे चलने वाले लिये नंगे पांव मे छाले विनती कर कर पूछ रहे है बोलो या ना बोलो तुम ………॥ परिवार हमारे टूट रहे हैं रिश्ते नाते छूट रहे है हम को पैदा करने वाले वृद्ध आश्रम ढूंढ रहे हैं सब जग जीते तुम से हारे बूढे और लाचार तुम्हारे माँ बाप ये तुम से पूछ रहें हैं बोलो या ना बोलो तुम्………। वर्षों तक भी समय नही मिलता अपनो से मिलने का लेकिन वक्त बहुत बचत है टीवी से नहीं हिलने का दूर गाँव मे बैथे अपने , लिये तुम से मिलने के सपने चिठठी लिख लिख पूछ रहे है बोलो या न बोलो तुम् ………। हया खो गयी शर्म खो गयी धर्म खो गया कर्म खो गया ऐसी चली हवा पश्चिमी सारा भारत पश्चिम हो गया अब पूरव से उगता सूरज निस दिन तुम से पूछा करेगा बोलो या ना बोलो तुम पर अपने मन को टटोलो तुम अजादी के इन वषों मे क्या खोया है क्या पाया है

Monday, June 30, 2008

ये कैसी तरक्की है जो हम आप हैं करने लगे

धीरे धीरे आजकल क्यों रिश्ते सब मरने लगे
 ये कैसी तरक्की है जो हम आप हैं करने लगे
 थाली किसीकी खाली है हुआ करे किसी को क्या
आजकल तो सब के सब अपना घर भरने लगे
 अपने और बेगानो मे नहीं फर्क कुछ बाकी बचा
दोनो बचाने की जगह बेडा गरक करने लगे
 रात भर कोई सिसकिया लेता रहा लेता रहे
उसके पडोसी रात भर खर्राटे तक भरने लगे
 अपना भला बुरा लगे अब सोचने हम इस कदर
 अपने हित की खातिर दुनिया का बुरा करने लगे
 मालिक का हो कि गैर का बस खेत हरा चाहिये
 आजकल सारे गधे चारा हरा चरने लगे
 बुद्धि मिली दिल खो गया पढलिख के बस इतना हुआ
 तरक्की तो करने लगे पर सोच मे गिरने लगे

Friday, June 27, 2008

शब्द अपना अर्थ खोने लगे हैं

परिवर्तन की कैसी चली ये हवा
 शब्द अपना अर्थ खोने लगे है
 दोस्ती के नाम पर दुश्मनी निभाता है
हाल पूछने मेरा जब भी वो आता है
 जख्म देख कर मेरे हमदर्दी यूँ जताता है
 कान्टो की नोक से मरहम लगाता है
 कैसे कैसे दोस्त आज होने लगे है
 शब्द अपना अर्थ खोने लगे हैँ
 दौर है मिलावट का हर चीज मे मिलावट है
 जिन्दगी के दामन पर मौत की लिखावट है
 मरता कोई बच्चा या मरती कोई नारी है
 इन्हे क्या ये तो लाशो के व्यापारी हैं
कैसे कैसे व्यापार होने लगे हैं
 शब्द अपना अर्थ खोने लगे हैं
 धर्म के भी अब तो बदलने लगे मायने हैं
 जगह जगह धर्म की खुल गयी दुकाने हैं
आसन हैं ऊँचे इनके, उँची ऊँची बाते हैं
करना सिखाते जो खुद ये कर नहीं पाते है
 त्याग हो कि सादगी दूजे सीखे तो अच्छा है
खुद ये ठाठ बाठ का जीवन बिताते है
 कैसे कैसे धर्म गुरू होने लगे है
शब्द अपना अर्थ खोने लगे हैं
पर इससे पहले  की एक एक कर  सारे शब्द बदल जाएँ
इससे पहले की अन्धकार हर शब्द का अर्थ निगल जाए
आह्वाहन तुम्हारा करता हूँ आओ मित्रों आगे आओ
मत देखो राह पैगम्बर की तुम खुद ही अपना डीप जलाओ
और जब समाज में हर कोई यूँ अपना डीप जलाएगा
इन खोये शब्दों को आना अर्थ स्वयं मिल जाएगा


Thursday, June 26, 2008

आज तक मानी किसी की भी नहीं
 पर आज ये जिद्द तोड़ डाली जायेगी
 जायज नाजायज सोच कर क्या कीजिये
 अब बात तेरी कोई भी हम से ना टाली जायेगी
 है तमन्ना गर तेरी कि याद हम रखें तुम्हें
वादा रहा मर के भी तेरी याद ना मिट पायेगी
 दिल तो क्या आत्मा तक मे बसा डाला तुम्हें
 हर जन्म अब याद तेरी साथ मेरे जायेगी

जब तक दुर्योधन जिन्दा है तूँ लडे बिना नहीं रह सकता

ये जीवन इक समझौता है, हर रोज मुझे समझाते हो
 सच कहो तो कितने समझौते तुम खुशीखुशी कर पाते हो
 जो टीस सी दिल मे छोड़ जाये वो समर्पण है समझौता नहीं
जो चाहे नाम दो तुम इसको मुझसे तो ये सब होता नहीं
 ये जीवन है शतरंज नही यहाँ नही बराबर छूटोगे
यहाँ समझौता मुमकिन ही नहीं य हारोगे या जीतोगे
 जीत भी सच है हार भी सच है झूठ सिर्फ समझौता है
आँखे मूंदना घुटने टेकना क्या ये समझौता होता है
 जीवन है महासंग्राम यहाँ हर मोड़ पे जंग है छिड़ी हुई
लड़ना ही तेरी नियति है तुझे समझोते की क्या पड़ी हुई
 समझौते की बाते तो है सिर्फ निराशावादी करते
युद्ध शुरु होने से पहले हार को जो स्वीकार है करते
 आशा वाद तो लड़ना है जब तक जीत नही वरते
 वो क्या बाजी जीतेगे जो सदा हार से रहे है डरते
 वो लोग जो बातो बातो मे समझौता करते फिरते हैं
या तो वो हारे होते है या फिर वो हार से डरते हैं
 जब तक दुर्योधन जिन्दा है तूँ लडे बिना नही रह सकता
 इसे धर्मयुद्ध ही मान के लड़ गर हार जीत नही सह सकता

Thursday, June 12, 2008

दिल भी दिया तो उसके बदले तोल से ज्यादा दाम लिया

सब लाख सिखाते रहे हमे काम दिमाग से लिया करो
 हम ठहरे अल्हड़ नादाँ जब लिया तो दिल से काम लिया
 प्यार मे भी व्यापार सा अब व्यवहार दिखाने लगे हैं लोग
 दिल भी दिया तो उसके बदले तोल से ज्यादा दाम लिया
 सुन लेते लोगो की अगर तो हम भी तरक्की कर जाते
रह गये पीछे क्योंकि हमने पगले दिल से काम लिया 
कोई पुकारा अल्लाह तो किसी ने रब का नाम लिया
वक्त-ए-इबादत हमने जब भी लिया तुम्हारा नाम लिया
 जिन्होने की रब की पूजा वो मरके स्वर्ग को जायेंगें
उसको स्वर्ग मिलेगा यहीं जिसने तेरा दामन थाम लिया
 साकी तेरी नजरों से अधिक मय भी नशीली क्या होगी
 हम ने देखी तेरी नजर जब औरो ने तुझ से जाम लिया
 अपनो और गैरो मे हमको फर्क नजर आया तो यही
अपनो ने जब छोड़ दिया गैरो ने बढ़ के थाम लिया
 क्या बाकी बचा इन्साफ यहाँ और कैसे मुन्सिफ बैठे है
 उसी जुर्म पे इक को सजा मिली और दूजे ने इनाम लिया
 तुम कहते अगर,हम दिल अपना, खुद टुकड़े टुकड़े कर देते
 दिल तोड़ मेरा, तुमने नाहक, क्यों अपने सर इल्जाम लिया

Wednesday, June 11, 2008

भूख इन्सान को इन्सा नही रहने देती

भूख इन्सान को इन्सा नही रहने देती
 अच्छे अच्छों को ये शैतान बना देती है
 कूड़े के ढेर मे खाने को जो कुछ ढूँढा करे
 भूख इन्साँ को , वो हैवान बना देती है
 पेट भर जाने पे भगवान नजर आता है
 खाली पेटो को ये शैतान मिला देती है
 खाली पेटो को नैतिकता का सबक दे ना कोई
 भूख इस पाठ को जड़ से ही भुला देती है
 ना कोई रिश्ता बडा है न ही कोई नाता बडा
 भूख हर रिश्ते का कद बौना दिखा देती है
 है वही शख्स बड़ा और वही शै है बडी
 वक्त पे भूख जो इन्सा की मिटा देती है

Tuesday, June 10, 2008

जाने क्यों

जाने क्यों कुकरमुत्ते की तरह
 उग आती है महत्वाकाँक्षायें
और अचानक धारण कर लेती है
रूप एक विशाल वट वृक्ष का
जो ढक लेता है सारा आकाश
उसके लिये
जो बैठा होता है इसके नीचे
उसे दिखता है तो बस ये वट वृक्ष
और मानने लगता है कि यही है दुनिया
 जाने क्योँ हमे अहसास ही नही होता
 कि पूरी नही होती किसी की भी सारी इच्छायेँ
 किसी से भी सारी अपेक्षायें
चाह कर भी अनु्त्तरित रह जाती है प्रार्थानायें
कहीं ऐसा तो नहीं हम जाते हैं
भूल जीवन का वो पहला उसूल
कि यहाँ क्रय शक्ति से अधिक कुछ नही प्राप्त होता
 चाहे कोई हंसता रहे या रोता
 जाने क्यो हम चाहने लगते है
कि कोई हमें चाहे प्यार करे ,सराहे
और पूरी करे वो हर अपेक्षा जो हमे उससे है
 पर है अक्सर भूल जाते अपनी विवशता अपनी असमर्थता
 जब हम किसीकी अपेक्षायें पूरी नही कर पाते
 जाने क्यों भूल जाते हैं
 हर नदिया समुद्र तक नही पहुँचती
 समुद्र मिलन से पहले ही हो जाती है विलुप्त
चलते चलते राह मे
एक अधूरी आस लिये पिया मिलन की
 पर जी जाती है एक पूरा जीवन जीवन
 जो जन्म और मृत्य के बीच कहलाता है सफर
 जाने क्योँ जब सान्झ लगती है ढलने
अन्धेरा लगता है रोशनी को धीरे धीरे निगलने
 रोशनी क्यों नहीं चीखती चिल्लाती
क्योँ उसे मान लेती है अपनी नियति
और कर देती है अन्धकार के आगे अनचाहा समर्पण
शायद ये सोच कि कल फिर सुबह होगी


Monday, June 9, 2008

तूँ किसी को भी मिले मुझ को तो मिलनी नहीं

बात क्या तुम से करूँ जब बात कुछ बननी नहीं
मैने कुछ कहना नहीं और तुम ने कुछ सुननी नही
 क्यों गिला तुम से करूं कि जख्म तूने है दिये
ढूँढ कर लाये कोई वो सीना जो छलनी नही
 साफ ना कह दो तो शायद मै मना लूँ अपना मन
यूँ टालने से प्यार की कोई बात तो टलनी नहीं
 यूँ बात ना बिगाड़ ये गुडे गुडडी का खेल नहीं
इक बार जो बिगडी तो किसीसे भी संभलनी नहीं
 किस लिये बैठा रहूं दर पे तेरे मै रात दिन
हक भी जब मिलना नहीं भीख भी मिलनी नही
 तुमको भी मालूम है और मुझ को भी ये है पता
तूँ किसी को भी मिले मुझ को तो मिलनी नही

Tuesday, June 3, 2008

काश तुम ही समझ जाती जो नही कहा है मैने

पता नही क्यों
 जम जाते है स्वर नली मे वो सारे शब्द
 जिन्हे रात भर अपने प्यार की गर्मी से
 रखता हूँ गर्म ताकि उगल सकूँ उन्हे ज्यों का त्यों
अगर और कुछ ना भी कह सकूँ तुम से
जब तुम मिलो सुबह रेलवे फाटक के उस पार
 कालिज जाते हुये
 पता नही क्यों खडा रह्ता हूँ जडवत
 घन्टो तुम्हारे इन्त्जार मे
सारी शक्ति कहाँ खो जाती है
 शरीर क्यों हो जाता हैं निढाल
 ठीक उस क्षण जब तुम आने ही वाली होती हो
लगता है कमजोर पड रही है पाँव तले की जमीन
और मै अकस्मात चल पडता हूँ वहाँ से
 बिना तुम्हे मिले बस ये सोच कर
कि कल फिर एक बार करूँगा कोशिश
वहाँ पर टिके रहने की
 उन जमे हुये शब्दो को बाहर निकाल कहने की
 पता नही क्यों
 मुझे पता है नहीं होगा कल
 कुछ भी आज से ज्यादा
 कोई अर्थ नही रखता मेरा
 आज का पक्का इरादा
 फिर तुम ही क्यों नही समझ जाती
जो नही कहा है मैने
 या क्यों नही अपने प्यार की गर्मी मिला देती मेरे प्यार की गर्मी मे
तकि उस गर्मी से पिघल सके वो शब्द
 जो जम जाते है जब भी तुम सामने होती हो
 काश तुम ही समझ जाती "वो"
जो नही कहा है मैने

तुम ही क्योँ नही समझ जाती जो नहीं कहा है मैने

पता नही क्यों जम जाते है स्वर नली मे वो सारे शब्द जिन्हे रात भर अपने प्यार की गर्मी से रखता हूँ गर्म ताकि उगल सकूँ उन्हे ज्यों का त्यों अगर और कुछ ना भी कह सकूँ तुम से जब तुम मिलो सुबह रेलवे फाटक के उस पार कालिज जाते हुये पता नही क्यों खडा रह्ता हूँ जडवत घन्टो तुम्हारे इन्त्जार मे सारी शक्ति कहाँ खो जाती है शरीर क्यों हो जाता हैं निढाल ठीक उस क्षण जब तुम आने ही वाली होती हो लगता है कमजोर पड रही है पाँव तले की जमीन और मै अकस्मात चल पडता हूँ वहाँ से बिना तुम्हे मिले बस ये सोच कर कि कल फिर एक बार करूँगा कोशिश वहाँ पर टिके रहने की उन जमे हुये शब्दो को बाहर निकालने की पता नही क्यों मुझे पता है कि नहीं होगा कुछ भी कल आज से ज्यादा फिर तुम ही क्यों नही समझ जाती जो नही कहा है मैने या क्यों नही अपने प्यार की गर्मी मिला देती मेरे प्यार की गर्मी मे तकि उस गर्मी से पिघल सके वो शब्द जो जम जाते है जब भी तुम सामने होती हो

Monday, June 2, 2008

रात भर कोई सिसकिया लेता रहा लेता रहे

धीरे धीरे आजकल रिश्ते सब मरने लगे
हम भी औरो की तरह तरक्की अब करने लगे
 थाली किसीकी खाली है हुआ करे किसी को क्या
 आजकल तो सब के सब अपना घर भरने लगे
 अपनो बेगानो मे फर्क अब क्या रहा सोचो जरा
 दोनो बचाने की जगह बेडा गरक करने लगे
 रात भर कोई सिसकिया लेता रहा लेता रहे
सारे पडोसी रात भर खर्राटे तक भरने लगे
 अपना भला बुरा लगे अब सोचने हम इस कदर
अपने हित की खातिर दुनिया का बुरा करने लगे
 मालिक का हो या गैर का बस खेत हरा चाहिये
आजकल सारे गधे चारा हरा चरने लगे
 बुद्धि मिली दिल खो गया पढलिख के इतना ही हुआ
 तरक्की तो करने लगे पर सोच मे गिरने लगे

Thursday, May 29, 2008

घर फूँक तमाशा देखा है मैने इन दुनिया वालो का

क्यों व्यर्थ यत्न तुम करते हो बान्धने का मुझे बन्धन मे
 मै सूखी रेत के जैसा बन्द मुठठी से फिसलता जाँऊंगा
 मै दिवाना मन का मौजी जिस राह चला चलता ही गया
 किसी राह में खुशिया खडी मिली किसी राह मे गम मिलता ही गया
 घर फूँक तमाशा देखा है मैने इन दुनिया वालो का
तब जाकर उत्तर पाया है जीवन के कठिन सवालों का
 जब तक नीँद नही खुलती सच्चे सब सपने लगते है
और जब तक वक्त नही पडता सारे ही अपने लगते हैं
 जीवन साथी भी जीवन भर यहाँ साथ निभा नहीं पाता है
 तुम से क्या उम्मीद कि तुम से कुछ दिन का ही नाता है
 क्यो बान्धू मै तुम से खुद को इस बन्धन से क्या होना है
तुम से तो रिश्ता निभना नही दुनिया से भी रिश्ता खोना है

Tuesday, May 27, 2008

तुम जीत गयी मै हार गया

तुम जीत गयी मै हार गया
ना चाह कर भी जब तुमसे मै कर अनचाहा प्यार गया
 तुम ने तो कभी ये कहा नही तुम आओगी मुझसे मिलने
 क्यो दिल मे उमगें जगने लगी जब सान्झ लगी थोडा ढलने
 हर सान्झ ढले अम्बुआ के तले मै क्यो करने इन्तजार गया
 तुम जीत् गयी मै हार गया
 तुम थोड़ा सा क्या मुस्काई मै होकर पागल सौदाई
तुम्हें ऐसे अपना समझने लगा जैसे हो मेरी तुम परछाई
 है प्यार वही जो हो दोतरफा ये जान के भी
ना जाने क्यों मैं कर इकतरफा प्यार गया
तुम जीत् गयी मै हार गया रहने दे
जो बात अधूरी है नही होनी कभी ये पूरी है
ये जो तुम मे मुझ मे दूरी है
कुछ दोनों की मजबूरी है
मै प्यार बिना नही रह सकता
और तेरे लिये ये गैर जरूरी है
मानो ना मानो अपना तो
सारा जीवन बेकार गया
तुम जीत गयी मै हार गया

Monday, May 26, 2008

अब देखिये अन्जाम क्या होगा हमारी वफाओं का

मन्जिल ना थी नसीब मे तो मिलती किस तरह
मन्जिल कभी बदल गयी रस्ते कभी बदल गये
 मन्जिल ही नही ठीक या फिर रास्ते ही गलत है
 हम अकेले रह गये जिस राह को भी निकल गये
 शायद मेरी रफतार मे ही कुछ अजीब बात है
 कुछ तो पीछे रह गये कुछ लोग आगे निकल गये
 जिससे थी उम्मीद कि कुछ दूर संग चलेगा वो
 पहला मोड़ आया तो वो रास्ता ही बदल गये
 इल्जाम बेवफाई का बेशक मेरे सिर धर दिया
 सच ये है कि मुझ से पहले खुद ही वो बदल गये
 सुना हैं उस के दर पे फिसलन इस कदर मौजूद है
 जितने गये दर खुलने से पहले ही पहले फिसल गये
 अब देखिये अन्जाम क्या होगा हमारी वफाओं का
 आज तक तो गये जहाँ हम गिरते गिरते संभल गये

Friday, May 23, 2008

आज सारी रात उसकी सिसकिया सुनता रहा

आज सारी रात उस की सिसकिया सुनता रहा
 शायद सावन आया है मौसम बदलता लग रहा है
फिर किसी उम्मीद को आज दफन होना है जरूर
हर पल बदलता करवटें वो रात भर से जग रहा है
डर है फिर रिश्ता कोई मर ना जाये बेसबब
आज फिर बडे प्यार से मेरे गले वो लग रहा है
 आग लग जायेगी सारी दुनिया के हर कोने मे
 बाहर भड़क उठा अगर शोला जो दिल मे सुलग रहा है

ना जाने कौन मौसम मे मुझे जख्मी किया तुमने

हादसे हद से बढते जा रहे हैं
 हम अपने कद में घटते जा रहे हैं
 रफू कैसे करुंगा मैं अपना चाक दामन
रफू के साथ ही सुराख बढते जा रहें हैं
 बहुत मुश्किल है अब तो नग्न होने से बचना
 बदन के वस्त्र तो हर रोज फटते जा रहें हैं
 ना जाने कौन मौसम में मुझे ज़ख्मी किया तुमने
 कि सारे ज़ख्म ही नासूर बनते जा रहे हैं
 समय के साथ भर जाते ज़ख्म कोई गैर जो देता
 ये मेरे ज़ख्म तो हर रोज़ बढते जा रहे हैं
 दीया बुझाने का इल्ज़ाम ना ले सब्र कर थोड़ा
 हवांए तेज हैं दीये खुद ही बुझते जा रहे हैं

Thursday, May 22, 2008

कवि मित्र से

मेरे एक मित्र हैं दिखने मे तो, ठीक ठाक दिखते हैं फिर भी , जाने क्यों , कविताएं लिखते हैं एक दिन पूछ ही लिया कि मित्र ये तो बता ये यूँ ही लिखते रहते हो या तुम्हे कुछ है मिलता कहने लगे तुम्हे नहीं मालूम कविताए लिखने से मिलता है अदभुत सुख, शान्ती और सकून मैने कहा मित्र , ये बात तो नहीं जमीं तुम्हारे जीवन मे क्या सचमुच इन तीनों की है इतनी कमी तो कहने लगे मित्र अगर इन तीनों का एक अंश भी मेरे जीवन में होता तो मै भी होता एक समान्य इन्सान कवि नहीं होता अरे कवि तो बनता ही है तभी जब दिमाग मे उठी हो कोई खलबली या फिर मन मे हो अशान्ति कारण कोई भी हो आफिस मे चैन ना हो या घर में हो क्रान्ति व्यवस्था में कमी हो या समाज मे हो कोई खराबी उसे हर समस्या रूपी ताले की कविता ही नज़र आती है चाबी

मैने कहा मै समझ गया कवि कौन बन पाता है आदमी ,जब अपनी सोच और अपने वातावरण मे तालमेल नहीं बिठा पाता है जब व्यवस्था को बदलने की क्षमता या साहस नहीं जुटा पाता है ना समाज को बदलना लगता है संभव न खुद को बदल पाता है तब वो कवि बन जाता है मैने मित्र से फिर कहा मित्र एक प्रश्न तो अभी भी बचा रहा ये जो कविताए इतनी मेहनत से तूँ गढ़ता है आखिर इन्हें कौन पढ़ता है पढना, समझना या प्रेरणा पाना तो दूर आम आदमी तो कविता के नाम से ही चिढता है

कवि मित्र बोले, मित्र तूँ नहीं जानता कवियों की जात को नहीं पहचानता हर कवि को कोई ना कोई और कवि मिल जाता है जब उसकी कविता कोई नही पढता

तब वो अन्य कवियों को पढ़ उन पर टीका टिप्प्णी कर आता है

उनमे से कुछ कवियो को

इस कवि का ख्याल आ जाता है

और इस तरह हर कवि को कोई ना कोई पाठक मिल ही जाता है

Monday, May 19, 2008

साफ कहता हूँ मुझे है प्यार तुम से हो चला

प्यार रिश्तों में बसाना बहुत जरूरी है
रिश्ते हैं वरना क्या कुदरत की थोपी हुई मज़बूरी हैं
 रिश्ता कोई भी हो 'प्यार' बिन मज़ा आता नहीं
लाख सुन्दर हो मगर महक बिना
फूल हर्गिज मन को महकाता नहीं
 'प्यार' क्या होता है ये मैं बताता हूँ तुम्हें
 किस हद तक हो सकता है ये करके दिखाता हूँ
 तुम्हें तुम कौन हो, पता नहीं
 तुम कैसी हो, देखा नहीं
तुम हो कहाँ, खबर नहीं
तेरी तस्वीर ही मिल जाये ये भी तो मुकद्दर नहीं
फिर भी ये 'दिल' है,
 तुम्हे अच्छी तरह पहचानता है
हर बार तुम करती हो 'ना' हर बार ये 'हाँ' मानता है
 ना तुझे छुआ है मैने ना किया तेरा दीदार है
 बस एक फूल की महक सा महसूस किया है तुझे
और देख ले, तस्वीर तेरी, दिल में मेरे तैयार है
 और ये भी है दावा मेरा खाली 'कहना-भर' नहीं
ये है तस्वीर तेरी हूबहू
खुद से मिला और देख थोड़ी भी इधर-उधर नहीं
तुम लाख पर्दों में रहो पर मुझ से तुम छुपी रहो
 इस कदर कमजोर मेरे प्यार की नजर नहीं
अब कहो तुम, ये प्यार नहीं या प्यार का ये असर नहीं
 मै पूरे होशोहवास से हर एक आम-ओ-खास से
 साफ कहता हूँ मुझे है प्यार तुम से हो चला
और इस 'इजहारे-इश्क' का मैने किया है खुद 'गुनाह'
 भूल से कोई जुर्म मुझ से आज तक नहीं हुआ
 देनी है कोई 'सजा' तो आज ही दे दो हजूर
 फिर ना कहना 'इकबाल-ए-जुर्म' हमनें कभी नहीं किया

Thursday, May 15, 2008

मैंने एक कवि से पूछा

मैंने एक कवि से पूछा कवि तूँ क्यों कवितायें बनाता है बातों से किसी के सुख दुख नहीं मिटते फिर क्यों शब्दों का तू जाल फैलाता है कवि बोला मित्र क्या बतांऊ धर्म और समाज मे रीति और रिवाज़ मे आसपास या दूर दराज़ में कितनी बुराइयों का डेरा है कहीं गरीबी कहीं अशिक्षा तो कही अन्धविश्वासों ने घेरा है क्या बेगाना क्या सगा सब ने है सब को ठगा मुझे पूर यकीन हो गया है मानव संवेदनहीन हो गया है मित्र देता है दगा जीवन साथी है बेवफा ये सब देख दुखी हो जाता हूँ लेकिन कुछ कर पाने में खुद को असहाय पाता हूँ कविता के माधयम से औरो का आह्ववान करता हूँ चुप हो जाता हूँ मैने कहा ,मित्र, अब मेरी समझ में आया कविता के माधयम से तुम ने समाज सुधार का बीड़ा है उठाया लेकिन , कवि मित्र कभी तुम्हारे मन में ये ख्याल नहीं आया कि, कोई और , वो क्यों करेगा जिसे करने की तुम ने कोशिश ही नहीं की या जिसे तूँ खुद कर नहीं पाया क्या तुझे अपनी सोच, अपने दर्शन् शास्त्र पर कम यकीन है या तूँ भी वास्तव में औरो की तरह संवेदनहीन है उस रोज़ एक अनाथ बच्चे पर तुम्हारी कविता पढ़ी उसके नगे पाँव, फटे पुराने वस्त्र तुम्हे सब नज़र आया तुमने इस ओर धयान समाज को दिलाया चलो कोई तो फर्ज़ निभाया पर कवि महोदय ये तो बता क्या तुम सचमुच इतने साधन हीन हो कि तुम नहीं सकते एक भी अनाथ बच्चे को अपना या किसी गरीब बच्चे को पढ़ा उसका जीवन सको बना यदि चन्द साधन-सम्पन्न कवि एक एक अनाथ बच्चे को भी अपनाते तो अब तक कई बच्चों के जीवन संवर जाते भूलते हो , कविता केवल शब्दों में ही नही होती जीवन में भी होती है और जीवन में, कविता के लिये, तन ,मन, धन लगाना पड़ता है लेकिन तू ठहरा कवि जो केवल शब्दों मे ही कविता गढता है ऐसे में कौन तेरी मानेगा जब वो ये जानेगा कि तूँ इस बुराई रूपी रावण से पंगा लेने के लिये केवल दूसरों को उकसाता है रावण मर गया तो ठीक ,वरना तेरा क्या जाता है मित्रवर, ऐसे समाज सुधार कहाँ आ पाता है कवि, तेरी सच्ची कविता उस दिन बन पायेगी जब शब्द जाल से निकल तेरी जिन्दगी खुद कविता बन जायेगी उस रोज़ कोईं नहीं पूछेगा कवि तू क्यों कवितायें बनाता है क्यों शब्दों का जाल फैलाता है

Tuesday, May 13, 2008

अपने किये गुनाह भी वो मेरे नाम गिन गया

डूबता ना किस तरह तूँ ही बता मेरे खुदा
 एक तिनके का सहारा था सो वो भी छिन गया
 लेने या देने का सम्बन्ध कोई तो बाकी चाहिये
 पर अपना रिश्तेदार तो सारा हिसाब गिन गया
मेरा कोई गुनाह उसने माफ तो करना था क्या
अपने किये गुनाह भी वो मेरे नाम गिन गया
जिन्दगी के सफर में मित्रों का साथ यूँ रहा
 थे खोटे सिक्के जेब में बाज़ार थैले बिन गया
उस समय चिराग लेकर दोस्त सारे आ गये
रात सारी कट गयी , चढ जब उजरा दिन गया

Monday, May 12, 2008

उस रोज़ मुझे तुम ऐसे मिली

उस रोज़ मुझे तुम ऐसे मिली सर्दी में हो जैसे धूप खिली
 गर्मी में धूप के मारे को जैसे मिल जाये घनी छाया
 सदियों के प्यासे को जैसे जल का कोई स्त्रोत नजर आया
 या कहो कि चाहत थी जल की पर मुझ को अमृतधार मिली
 उस रोज़ मुझे तुम ऐसे मिली-----------
 बिन दिशा भटकते इन्सा को जैसे कोइ दिशा दिखाई दी
 तन्हाई से ऊबे इन्सा को पायल की झनक सुनाई दी
जैसे घनघोर अन्धेरे मे एकाएक कोई ज्योत जली
उस रोज़ मुझे तुम ऐसे मिली------
ज्यों भूख का मारा इन्सा कोई रोटी की थाली पा जाये
 या मन में बसी तस्वीर कोई जिन्दा ही सामने आ जाये
 या कहो कि जैसे बच्चे को मन पसन्द सी आइस क्रीम मिली
 उस रोज़ मुझे तुम ऐसे मिली------
या किसी तपस्वी के समक्ष इष्टदेव अचानक आ जाये
या फिर फांसी के तख्त चढा कोई प्राणदान ज्यों पा जाये
या कहो कि मांगने वाले को मुंह मांगी कोई मुराद मिली
उस रोज़ मुझे तुम ऐसे मिली------

Sunday, May 11, 2008

जब तक है जवानी चढी हुई चाहने वालो की कमी नही

अपनी तो इतनी चाहत थी कि हम को भी कोई चाह मिले
मंजिल मिले मिले न मिले पर चलने को कोई राह मिले
 प्यार में है गहराई बहुत लोगो से ही सुनते आये है
शायद तेरी नजरो मे मुझे इस सच की कोई थाह मिले
 कोई बात ना कर कभी साथ ना चल पर ये तो जरूरी नही सनम
तुम नजरे चुरा के ही निकलो जब कभी भी तुझ से निगाह मिले
 तेरी जुल्फों को सुलझांऊ मैं शायद ये ग्वारा हो ना तुम्हे
लेकिन उलझन कोई तेरी सुलझाने का मौका तो मिले
 है प्यार मेरे दिल मे इतना जिसका तुम को अहसास नही
 इक बार तो दिल मे झांक सनम क्या पता दावा सच्चा निकले
 तुम मेरा अकेलापन थोड़ा कम कर पाते तो बेहतर था
 यूँ अपना हो जाने का मौका फिर शायद मिले मिले ना मिले
 थोडा दूर दूर पर साथ साथ कुछ दूर तो चल ही सकते हैं
 जब तक तुझे तेरी राह मिले या जब तक मेरी साँस चले
 जब तक है जवानी चढी हुई चाहने वालो की कमी नही
लेकिन मुझ जैसा शौदाई इस जन्म मे तो शायद ही मिले
 नहीं प्यार अगर दिल मे तेरे इक बार इशारा कर दे मुझे है
खुदा कसम ये शख्स अगर तुझे दुनिया में दोबारा मिले

Saturday, May 10, 2008

मत करो नाकाम कोशिश ये मकाँ बचना नहीं

सोचा नही तो सोचो, उस देश का क्या हो
जिस देश का हर शख्स उसे लूट रहा हो
 जिस नाव के सवार उस में कर रहें हो छेद
 उस पार तक वो नाव फिर क्या खाक जायेगी
 मझधार तक पहुंचना भी किस्मत की बात है
साहिल के आस पास ही वो डूब जायेगी
 टांग लो तस्वीरें जितनी तुम हर इक दीवार पर
 यूँ छुपाने से दरारें और बढती जायेंगी
 दीवार की हर ईंट तक जा पहुँची है हर इक दरार
ये दरारें वो नही जो भरने से भर जायेंगी
 इन दरारों से हुई जर्ज़र दीवारें देखिए
 और कितने रोज़ तक, खुद को खड़ा रख पायेंगीं
 मत करो नाकाम कोशिश ये मकाँ बचना नहीं
 गिरती दीवारों पे छत भी कब तलक टिक पायेंगी
 गिरने दो या खुद गिरा दो ऐसे घर की हर दीवार
 अब नये मकान की बुनियाद रखी जायेगी
जब नये दरवाजे होंगें और नई नई खिडकियाँ
 तब कहीँ जाकर इस घर में रोशनी आ पायेगी

Friday, May 9, 2008

इस सच को ही सच मानते हो तो इससे बडा कोई झूठ नहीं

सब कह्ते हैं सच बोलो सच अन्त में जीत ही जाता है
मै कह्ता हूँ मत बोलो सच सुनना किस को भाता है
 सच क्या है इक नंगापन है नंगापन किसे सुहाता है
 नंगेपन को ढकने का हुनर बचपन से सिखाया जाता है
 सीधे सच्चे इन्सानों की यहाँ कोई बात नहीं सुनता
बातें सब सुनते है उसकी जिसे बात बनाना आता है
 गलत सही, यहाँ कुछ भी नहीं, जो ताकतवर है वही सही
 या शब्दजाल बुनकर जिसको, सही साबित होना आता है
 सत्यम बुर्यात प्रियम बुर्यात कैसे हो सकता है संभव
 सुना है सच कडवा होता है, कडवापन किसको भाता है
 कभी सोचा है कि सच को प्रिय किस तरह बनाया जाता है
 कुछ सच को छुपाया जाता है कुछ झूठ मिलाया जाता है
 इस सच को ही सच मानते हो तो इससे बडा कोई झूठ नहीं
 इस झूठे सच का पहला घूंट हमें घर में पिलाया जाता है

Thursday, May 8, 2008

अब तुम ही कहो, हम को, किस शख्स ने मारा है

जब तुम भी हमारे हो, और वो भी हमारा है 
तब तुम ही कहो, हम को, किस शख्स ने मारा है
शीशा ही नहीं टूटा, अक्स भी टूटा है
पत्थर किसी अपने ने, बेरहमी से मारा है
  उस पार जो पहुंचे है, किस्मत के सिकन्दर हैं
इस पार जो रह गये हैं, वो भी कुछ बेहतर हैं
उस शख्स की हालत का, अन्दाजा करो यारों
माझी ने जिसे लाकर, मझधार उतारा है
  उसका तो दिखावा था ,हम सच ही समझ बैठे
कश्ती भी हमारी है , माझी भी हमारा है 
कोई खोट तेरे दिल का, चेहरे से ना पढ़ पाया
तुमने अपना चेहरा, किस कदर संवारा है
  क्या लिखा किताबों में ,उसकी तो तुम जानो
मैं तो वो कहता हूँ ,जो मैने गुजारा है
जो जख्म हैं सीने पे ,दुश्मन की इनायत हैं
पर पीठ में ये खंजर, अपनो ने उतारा है
  अब तुम ही कहो हमको किस शख्स ने मारा है

Tuesday, May 6, 2008

हाँ लेकिन ये सच है तुम से प्यार बहुत करता हूँ

नहीं कहा है, नहीं कहुगा, मैं तुम पे मरता हूँ
हाँ लेकिन ये सच है तुम से प्यार बहुत करता हूँ
 तेरे नयना अच्छे लगते, तेरा चेहरा मुझ को भाता
 तुझ से बात करूँ तो, मन को अजब सकूँ सा है मिल जाता
 जब भी दिल में दर्द उठा है, बस तेरी ही याद आई
खुदा की बारी भी ऐसे में, अकसर तेरे बाद आई
 जी करता है, सब को छोड़ कर, पास तेरे मै आ जाऊँ
या फिर पंख लगा, तेरे संग, दूर कहीं मै उड़ जाऊँ
 पर ये सब कैसे कर पाऊँ सैयाद से डरता हूँ
 हाँ फिर भी ये सच है तुम से प्यार बहुत करता हूँ
 सूरज की गर्मी का मारा ढूंढे हर कोई छाया
प्यास लगे तो कौन नही है पास कुँए के आया
 मै भी तुम तक आ पहुंचा चाहे तो प्यास बुझा दो
 या फिर तुम भी निष्ठुर होकर प्यासा ही लौटा दो
तुम चाहो तो हर सकती हो मेरे मन की पीर
चिड़ी  चोंच भर ले गयी नदी न घट्यो नीर
 जितना तुम मुझ को भाती हो, काश मै तुम को भाता
 तो फिर इस जग में जीने का, अर्थ मुझे मिल जाता
 बस, इतनी सी चाहत है, कहने से डरता हूँ डरता हूँ
 क्योंकि, मै तुम से प्यार बहुत करता हूँ

शीशे के घरों में रहते हो और पत्थर फैंकते हो मुझ पर

जब दिल मे प्यार बचा ही नही  इक बार में रिश्ता खत्म करो
 बेजान हुए रिश्तों की लाश को मुझसे नहीं ढोया जाता
 जब मन में कोई खुशी ना हो होंठों से हंस कर क्या हासिल
जब दिल में कोई दर्द ना हो आँखो से नही रोया जाता
 तकलीफ मुझे पल पल दे कर तुमने चाहा हर खुशी मिले
 अजी आम अगर खाने हों तो बबूल नहीं बोया जाता
 इक इक रिश्ते के मरने पर इतना रोया कि मत पूछो
 नही आँख मे आँसू बचा कोई अब मुझसे नहीं रोया जाता
 है कौन सा दामन जिसमें कभी दाग कोई भी लगा ना हो
हर दाग के चक्कर में अपना दामन तो नहीं खोया जाता
 और ये कौन तरीका ढूंढा है दामन से दाग छुडाने का
दागी दामन को गलियों में सरे आम नहीं धोया जाता
 लूट हजारो और लाखों तू जो सैकड़ों बांटता फिरता है
 यूँ पुण्य नहीं हासिल होता यूँ पाप नहीं धोया जाता
 शीशे के घरों में रह्ते हो और पत्थर फैंकते हो मुझ पर
 शुक्र करो मुझ से अपना कभी होश नहीं खोया जाता
 उतना ना सही कुछ कम ही सही है अब भी माल तेरे घर में
ऐसे में खुले दरवाजे रख बेफिक्र नहीं सोया जाता

Monday, May 5, 2008

चल छोड़ किनारे को साथी आ आज बीच मझधार चले

चल छोड़ किनारे को साथी, आ आज बीच मझधार चलें
 इस पार तो सब कुछ देख लिया अब देखने कुछ उस पार चलें
 मत सोच कहेगी क्या दुनिया, दुनिया तो कहती रहती है
जो सहज लगे सो जीता जा जैसे कोई नदिया बहती है
 क्या सही ग़लत क्या पाप पुण्य सारी इस पार की बातें हैं
 हर रोज़ जो बद्ले परिभाषा सच मान बेकार की बातें हैं
 आ, छोड़ बेकार की बातों को, करने सपने साकार चलें
चल छोड़ किनारे………
 हर काम किया पर डर डर के, तूं जितना जिया सब मर मर के,
कोई खुशी अगर तूने पाई दुनिया को जो रास नहीं आई
पाई तो खुशी पर डर डर के या मन में ग्लानि को भर के
 उस खुशी से मिलती कहाँ खुशी जो मन में ग्लानि भर जाये
वो कश्ती पार नहीं जाती जिस कश्ती मे पानी भर जाये
 तूँ चेहरे से मुस्काता रहा पर मन मे करता रहा रुदन
अब छोड़ दे ये नकली जीवन और खोल दे मन का हर बंधन
 तन मन दोनों पुलकित हो जहाँ आ ढूंढने वो संसार चले
 कर हिम्मत आ उस पार चलें आ आज बीच मझधार चलें
इस पार तो सब कुछ देख लिया अब देखने कुछ उस पार चलें

Friday, May 2, 2008

जब कोई मुस्का के मिलने लगता है

जब कोई मुस्का के मिलने लगता है
 अपनो से भी ज्यादा अपना लगता है
 फिर मेरे आँगन मे कोई चाँद उतरने लगता है
 फिर ये मन का पंछी ऊँचे गगन मे उडने लगता है
 फिर इस ठूंठ की डाली डाली कोंपल फूटने लगती है
 फिर मुरझाये पौधो मे कोई फूल निकलने लगता है
 फिर सूखे खेतो में जैसे पानी पडने लगता है
 फिर बीजों से जैसे कोई अंकुर फूटने लगता है
 कया नही जानता बीज जमीं में पडे पडे सड जाते है
 नही पता क्या बादल अक्सर बिन बरसे उड जाते हैं
 फिर भी नील गगन में जब कोई बादल दिखने लगता है
 मुझ को मन की धरा पे बहता दरिया दिखने लगता है
 हर पल यूँ लगता है बादल अब बरसा कि तब बरसा
 कैसा भी हो मौसम मुझ को सावन लगने लगता है
 और कोई हंस कर जब मुझको कहने लगता है अपना
नयनो में बसने लगता है फिर से एक नया सपना
फिर से सारे रिश्ते मुझको सच्चे लगने लगते हैं
क्या अपने क्या बेगाने सब अपने लगने लगते हैं
 व्यापारियों की इस दुनिया में मै प्यार ढूंढता फिरता हूँ
सब कह्ते है नहीं मिलेगा बेकार ढूंढता फिरता हूँ

Thursday, May 1, 2008

खुद अपनी फिक्र करना सीख वरना जी ना पायेगा

खुद अपनी फिक्र करना सीख वरना जी ना पायेगा
कि आखिर में तेरा तुझ से ही रिश्ता काम आएगा 

 बना तूँ लाख रिश्ते , पर ना इनको आजमाना तुम
ये दुनिया है, इस दुनिया में , नही  कोई काम आयेगा 

 है इन्साँ क्या अजीबोचीज, ग़र सोचो, तो जानोगो
ये  इक सुख पाने की खातिर हज़ारों दुख उठाएगा

बहुत पाने के चक्कर में, ना जाने क्या क्या खो डाला
इधर से पायेगा  इन्सां , उधर से खोता जाएगा

लगा कर देख लेना , तूँ हिसाब , जब भी जी चाहे
 कि तेरे हाथ में आखिर तो बस "ज़ीरो" ही आयेगा 

 गये वो दिन सुनहरी मछलिया मिलती थी पानी मे
 अब गंगा हो , कि हो यमुना, सिर्फ घड़ियाल आयेगा 

 निगलना इनकी फितरत है, तो  इक दूजे को निगलेंगें
 निगलते थे जिसे मिलकर, वो जब नहीं हाथ आएगा

जीवन के इस सफर में, इक इक बन्धन ऐसा टूटा



इक इक करके हम से छूटे, सारे रिश्ते ऐसे 
पतझड़ के मौसम में झड़ते, पेड़ से पत्ते जैसे 
 अब इस पेड़ पर नहीं बचा है, एक भी पत्ता बाकी
 देखें कबतक खड़ा रहेगा, अब ये ठूंठ एकाकी

छोड़ घौसला पक्षी उड़ गये, जब कुछ नज़र ना आया
 अपना कहने वालों ने, बस, इतना साथ निभाया 
 क्च्चे धागे से भी क्च्चा, हर इक रिश्ता निकला
 हल्की सी जो तपिश लगी, तो बर्फ के जैसा पिघला
 जीवन के इस सफर में, इक इक बन्धन ऐसा टूटा 
मानो कोई रेत का घर था, या फिर ख्वाब था झूठा 
 पर फिर इक दिन बारिश होगी, फिर मौसम बदलेगा 
फिर फूटेगी कोंपल, पत्ता नया कोई निकलेगा
 फिर कोई पक्षी, इसकी, किसी डाली पे नीड़ धरेगा
 कोई तो होगा जो आकर, कभी मेरी पीड़ हरेगा
 उस दिन छोड़ के जाने वालों, शायद तुम भी आओ 
जब अपना लेंगें दूजे, तब, तुम भी ह्क जतलाओ

Wednesday, April 30, 2008

जब तक दिल मे दर्द है बाकी तब तक गीत लिखुंगा


पूछ ना मुझ से मेरे साथी कब तक गीत लिखूंगा
जब तक दिल में दर्द है बाकी तब तक गीत लिखूँगा
कुछ दर्द मिले हैं अपनों से कुछ दर्द हैं टूटे सपनों के
 कुछ अपने हैं कुछ पराये हैं कुछ खुद मैने अपनाए हैं
 जब दर्द उभर कोई आता है तो शब्दों का रूप ले जाता है
मै गीत नहीं लिखता साथी तब गीत स्वयं बन जाता है।
मित्रों की बात करूँ साथी कहने को दोस्त कहलाते हैं
पर दिल से दिल मिलता ही नहीं बस हाथ से हाथ मिलाते हैं
 मिलना जुलना खाना पीना हर रोज़ इक्ठठे होता मगर
 जिस वक्त भी काम पड़ा इन से ये काम कभी नहीं आते हैं
 दुश्मन से तो बच भी सकतें हैं मित्रों से कोई बचाव नहीं
 ये चोट वो गहरी देते हैं जीवन भर भरता घाव नहीं
 जब घाव कोई रिस जाता है गीतों का रूप ले जाता है
 मैं गीत नहीं लिखता साथी तब गीत स्वय बन जाता है
 बेटी के पैदा होने पर कहते है कि लक्ष्मी आयी है
पूछो तो जरा फिर चेहरों पर क्यों मायूसी छायी है
 नारी को कहेंगें देवी है मानेगे उसे इन्सान नही
 उपभोग की वस्तु से ज्यादा देते उसको सम्मान नही
 दहेज के लालच मे कोई कहीँ जिन्दा उसे जलाता है
आरोप कहीं झूठे मढ कर उसे घर से निकाला जाता है
 जब बाप कोई बेटी के लिये दहेज जुटा नही पाता है
 डोली कि जगह जब अर्थी मे वो उसे विदा कर आता है
 तब दर्द कहाँ रुक पाता है शब्दो मे छलक ही आता है
मै गीत नही लिखता साथी तब गीत स्वयं बन जाता है
 जब तक गीत स्वय बनते है तब तक गीत लिखुँगा
 पूछ ना मुझ से मेरे साथी कब तक गीत लिखुँ गा

Tuesday, April 29, 2008

रुख जिन्दगी का तय यहाँ करता है हादसा

जीना भी हादसा, यहां, मरना भी हादसा
जो कुछ भी हो रहा यहाँ, सब कुछ है हादसा
 इक हादसे से ही जन्म, तेरा मेरा हुआ
 मर जायेंगें, जब और कोई होगा हादसा
 तेरे मेरे वज़ूद की करता है बात क्या
 दुनियाँ आई वज़ूद में, वो भी था हादसा
 कोई हादसा हुआ तो तब जाकर पता चला
 रुख़ ज़िन्दगी का तय यहाँ करता है हादसा
 कुछ पा लिया तो अपने को काबिल समझ लिया
 कुछ खो गया तो दोषी मुकद्दर बता दिया
 क्यों मानता नहीं कि हैं दोनों ही हादसा
खोना जो हादसा है तो पाना भी हादसा
 ना कोई वफादार है, ना कोई बेवफा
जो कुछ हुआ, हालात का था तय किया हुआ
 निभानी पड़े वफा, तो सब वफा के हैं खुदा
 सच तो है बेवफाई का मौका कहाँ मिला मौका मिला
, वफा का मुखौटा उतर गया चल पड़ा
 फिर बेवफाईयों का सिलसिला
 है बेवफाई और वफा दोनों ही हादसा
 रुख जिन्दगी का तय यहाँ करता है हादसा

Friday, April 25, 2008

आये अकेले, रहे अकेले, और आज अकेले लौट चले

अपनी तो इतनी चाहत थी कि मुझ को भी कोई चाह मिले
मंजिल मिले ,मिले ना मिले, बस चलने को कोई राह मिले
ता उम्र तलाश ही करते रहे, कोई साथी ऐसा मिल जाये
 कोई और चले ना चले संग में पर वो साथी तो साथ चले
 लेकिन मीलों आगे पीछे नहीं कोई दिखाई पड़ता है
 किससे कहूँ कि हाथ थाम ले किससे कहूँ कि साथ चले
 आये अकेले, रहे अकेले , और आज अकेले लौट चले
 दो कदम भी साथ ना देपाये अबतक जितने भी साथ मिले
 अन्त समय क्या भीड़ इकठठी कर के हासिल होना है
दो चार कदम भी क्यों कोई मेरी अर्थी के साथ चले
 सारी उम्र तो एक भी कन्धा नहीं मिला सिर रखने को
आखिरी वक्त फिर क्यों हम को इतने कन्धों का साथ मिले
 अपने अपने घर में रह कर मुझे अलविदा कह देना
 अब ये क्या अच्छा लगता है कि अर्थी संग बारात चले
 सब को अपनी पड़ी रही , सब अपने मे ही मस्त रहे
अब चलते हुये तेरे आंसुऔं की क्यों मुझको सौगात मिले
 ता उम्र अकेले गुजरी है तो दफन के वक्त भी धयान रहे
मेरे साथ में कोई कब्र ना हो, ना पास में कब्रिस्तान मिले

दिशाहीन सम्बन्धो को चलो कोई दिशा दी जाये

दिशाहीन सम्बन्धों को चलो कोई दिशा दी जाये
चारों दिशाएं खुली हैं तुम जिस और कहो ले जायें
 ये ना कहो कि वक्त पे छोड़ो जिधर बहेंगीं हवांए
 अपने आप ही चलने लगेंगी उसी ओर नौकांए
 हवा का क्या है ये तो अपना पलपल रुख बदलेगी
ऐसे में तो कभी इधर कभी उधर नाव चल देगी
 तुम ही कहो किस तरह से फिर मिलना है हमें किनारा
मिला भी तो किस काम का, जब ये जन्म बीत गया सारा
 मत खोलो तुम पाल, ना हों, जब तक अनूकूल हवायें
 पर इतना तो तय हो , कि हम कौन दिशा अपनाये
 धरे हाथ पे हाथ बैठना वक्त का बस करना इन्तज़ार
ये तो समझो लड़ने से फिर पहले ही गये बाज़ी हार
 हाथ में हो पतवार और मन मे हो थोड़ी हिम्मत
जो भी मंजिल फिर चाहो, कश्ती खुद तुम को पहुंचाए

Wednesday, April 23, 2008

अब बता इस राह मे अपना तूँ क्या गवाँयेगी

अपनी हर इक बात पे जो तूँ इस तरह अड़ जायेगी
बिगड़ी हूई फिर बात कोई किस तरह बन पायेगी
 खोल दे किवाड़ या फिर खोल दे खिड़की कोई
 वरना सारे घर मे ही बेहद घुटन हो जायेगी
 धूप का टुकडा हूँ थोड़ी उम्र है वो भी उधार की
जल्दी कर सांझ तक तो ज्यादा देर हो जायेगी
 प्यार के इन फूलों को तूँ किताबों में ना दे सूखने
 रंग़ शायद बच भी जाये पर महक उड जायेगी
 मेह्न्दी हाथो मे लगा हर खवाब अपना तूँ पूरा कर
 ज्यादा दिन तक हाथ खाली कैसे तूँ रख पायेगी
 जिन्दगी के सफर मे कहीँ रुक के डेरा भी डाल ले
वरना सारी जिन्दगी इक तलाश बन रह जायेगी
 मै तो गँवांने के लिये अपनी जान तक तैयार हूँ
अब बता इस राह में तूँ क्या अपना गंवायेगी
 दस्तक भी कितनी देर तक देगा कोई दर पे तेरे
अन्दर से उसको जब कोई आवाज तक ना आयेगी

Tuesday, April 22, 2008

तेरा नाम मरते दम मेरे लब पे आना है जरूर

अब इतना भी ना कीजीये, अपने हुस्न पे गरूर
चन्द हुस्न वाले हम पे भी थोड़ा तो मरते है हजूर

 महफिल में अपनी तारीफ से,इतना ना इतराईये
 कुछ लोग आईना जेब में, लेके चलते है हजूर

 करने को मुझको आपने, बेआबरू तो कर दिया
मेरे कसूर में मगर, शामिल था तेरा भी कसूर

 तुम्हे छोड़ इस जहाँ से रुखसत कैसे होगे क्या पता
 हर बार पलट आया, जब भी, दो कदम गया हूँ दूर

 आसमाँ पे चलने को, पाँव उठाना ये सोच कर
पैरों तले से जमीन भी, खिसक जाती है हजूर

 सब समझ जायेंगे मुझको किससे कितना प्यार था
 तेरा नाम मरते दम मेरे, लब पे आना है जरूर

Monday, April 21, 2008

प्यार इक तरफा कब तक करेंगें भला

प्यार इकतरफा कब तक करेंगें भला
प्यार वो भी तो आके जतायें हमे
 करना है तो करें कोई हम पे करम
 झूठे वादों से वो ना बहलायें हमें
 हमको मालूम है,जब कहानी का अन्त
 झूठे सपने कोई क्यों दिखाये हमें
 प्यार करने को जो मन नहीं,ना सही
झूठी मजबूरीयां ना बताये हमें
 दिल से लिखी है मैने कविता तो फिर
 उसपे कुछ तो असर नजर आये हमें
 या कहे बात मेरी समझ सब गया
या कैसी लिखूँ गजल समझाये हमें
 है कसम अब कविता ना लिखेंगें हम
 जबतक 'वो' लिखने को कह ना जाये हमें

ये राह बनी नही उनके लिये जो बीच राह घबरा जाये

मन्जिल है मेरी फूलों से भरी केवल राहें वीराना हैं
चल साथ जो तूँ भी मेरी तरह बस मन्जिल का दिवाना है
 कोई फूल ना खुशबू राहों में कांटो से भी बच कर जाना है
 कुछ कष्ट तो पाना ही होगा मन्जिल का जो लुत्फ उठाना है
 चाहो तो लौट जाओ अब भी कुछ दूर नही ज्यादा आये
ये राह बनी नहीं उनके लिये जो बीच राह घबरा जाये
 तूँ लौट गया तो कया शिकवा जब वो साथी भी लौट गया
 जिसकी थी कसम कि जीवन भर हर हाल मे साथ निभाना है
 तेरा साथ मिले तो बेहतर है पर बीच राह मत लौट आना हैं
 पहले ही दिल में जख्म बहुत कोई नया जख्म नहीं दे जाना
 मै तन्हा भला लेकिन बेवफा साथी मुझको मन्जूर नहीं
 तय सफर अकेला कर ना सकूँ हुआ इतना भी मज़बूर नहीं

Sunday, April 20, 2008

कौन चाहता है किसी को सिर्फ चाहने के लिये

देने को तो जान तक दे दूँ , पर दूँ किसके लिये।
कौन जिन्दा है बता इस दुनियां मे मेरे लिये।
 सब को अपनी है पड़ी , अपने मे ही सब व्यस्त है।
 वक्त बचता है कहाँ कोई सोचे कुछ मेरे लिये॥
 उसे अपना पेट भरने से फुर्सत मिले तो सोचे वो
 मेरा पेट खाली रह गया, पेट उसका भरने के लिये
 वो ये तो चाहता है कि, दूजा जान दे उसके लिये
पर अपनी जान रखता है, संभाल के खुद के लिये
 मै तो तन मन धन लुटाने, आया था तेरे द्वार पर
 तुमने ही दिल के द्वार तक , खोले नही मेरे लिये
 किसने कहा तुम दिल में अपने रखो हमको उम्र भर
मेहमाँ समझ तो रहने देते, एक दो दिन के लिये
 धन की चाहत ने है हर चाहत को पीछे छोड़ डाला
 अब कौन चाहता है किसी को सिर्फ चाहने के लिये

Saturday, April 19, 2008

न जाने कौन शख्स की करता है दिल तलाश

दो चार कदम ही सही कुछ दूर संग तो चल
ता उम्र यूँ भी किसने दिया है किसीका साथ
 उंगली ही पकड इतना भी सहारा है बहुत
 कमबख्त कौन कहता है कि थाम मेरा हाथ
 दो चार घूंट ही सही जो दे सके वो दे
मै कहाँ कहता हूँ दे भर भर मुझे गिलास
 इस कदर इक उम्र से प्यासे रहें हैं हम
कूँए को पास पाके भी जगती नही अब प्यास
 प्यासे की प्यास कम रही या थी बहुत अधिक
 इस प्यास का कैसे कोई कर पायेगा अह्सास
 बस ओस की दो चार बून्दे जीभ पर रख कर
 प्यासे ने गर बुझा ली अपनी उम्र भर की प्यास
 हर इक देखकर भी नहीं देखता कमबख्त
 न जाने कौन शख्स की करता है दिल तलाश
सारे वफादारों से तो मिलवा चुका हूं मै
लगता है किसी बेवफा की है इसे तलाश

Thursday, April 17, 2008

जब मिलन होना नही तो मिलना क्या ना मिलना क्या

मिल के भी तेरा ना मिलना मिलना भी तो ऐसे मिलना
बन्द मुठी में से सूखी रेत के जैसा फिसलना
प्यासे की किस्मत तो देखो कितना बदनसीब है
 दो बून्द पी सकता नही और सामने है उसके झरना
 कोई इसे पूजा कहे इज्जत कहे या और कुछ \
इससे ज्यादा और क्या कोई करेगा ज्यादती
आरती की थाली में, तुम ने सजा के रोटियां
भूख से बेहाल शख्स की उतारी आरती
 रीति और रिवाज क्या धर्म और समाज क्या
 ये तो हमेशा रहें है कल क्या और आज क्या
 फिर भी सब होता रहा है क्या नही होता रहा है
करने वाले कर गये सब रोने वाला रोता रहा है
 मै तो इतना मानता हूँ कोई माने य न माने
 करने के भी सौ बहाने, ना करने के भी सौ बहाने
 फिर क्यों बहाने ढूँढना इसकी कोई वजह नही
साफ कह दो दिल मे कुछ मेरे लिये जगह नहीं
 जिस गाँव जाना ही नहीं उन राहों से निकलना क्या
जब मिलन होना नही तो मिलना क्या ना मिलना क्या

तुम तो नजरे छोड़ सीधे दिल मे ही उतर गयी

तुम में कुछ तो बात है जो तुझ मे दिल अटक गया
 अब तक कभी ना भटका जाने आज क्यों भटक गया
तेरे बारे में ही अब ये सोचता दिन रात है
तुम में कुछ तो बात है
 और भी देखे हैं सुन्दर और भी देखे जवाँ
 मेरी नजरो में मगर कोई खरा उतरा कहाँ
 पर तुम तो नजरे छोड़ सीधे दिल में ही उतर गयी
 शायद दिल ने दिल से कर ली सीधे कोई बात है
तुम में कुछ तो बात है
 तुम मिली क्या जिन्दगी का रुख ही जैसे मुड़ गया
 गम से नाता टूट के खुशियों से जाके जुड़ गया
 आँसुओं की अब कभी होती नही बरसात है
 तुम मे कुछ तो बात है

Wednesday, April 16, 2008

ना रूठ तेरे रूठने से हम तबाह हो जायेंगें

ना रूठ तेरे रूठने से दिन मेरे फिर जायेंगे
ये उजाले दिन के, अन्धेरो मे बदल जायेंगे
 फिर नज़र आयेगा ना अपना कोई भी जहान में
 दामन तो क्या नजरे बचा के सब निकलते जायेगे
 शायद गैरों से तसल्ली रहम के नाते मिले
अपने तो ले ले चुस्कियां तब और भी रुलायेंगे
 तेरे बिन मेरी जरुरत फिर न समझेगा कोई
 या यूँ कहो सब जानकर अन्जान बनते जायेगे
 व्यस्त होगे मस्त होगे अपने अपने घर में सब
 दूर रहने के बहाने सब को मिलते जायेगे
 बन के बेगैरत ही रखनी होगी सबसे दोस्ती
 देख मजबूरी मेरी सब और तनते जायेगे
 पेट भरना ही नही काफी है जीने के लिये
 हालाकि जीने के लिये हम पेट भरते जायेगे
 देखना तब अन्न तेरे बिन रंग दिखलाता है क्या
तन से हम जिन्दा रहेगे मन से मरते जायेगे
 यूँ जीने को तो बिन तेरे भी जिन्दा हम रह जायेंगे
पर तुझको खो के , जिन्दगी से हम बता क्या पायेगे
 ना रूठ तेरे रूठने से हम तबाह हो जायेगे

Tuesday, April 15, 2008

एक लबालब प्याले जैसे गम से भरे हुये है लोग

तेरे शहर मे कैसे कैसे भरे हुए हैं लोग
 इक चेहरे पे कई कई चेहरे धरे हुए हैं लोग
 आतंकित है आशंकित है सहमे है घबराये है
हर आहट पे चौंक उठते हैं कितना डरे हुये हैं लोग
 साँसों के आने जाने से बस तन को जिन्दा रखा है
वरना चेहरे बतलाते हैं कि मन से मरे हुए हैं लोग
 हंसने की कोशिश में अक्सर आँख छलक आती है
 इनकी एक लबालब प्याले जैसे गम से भरे हुए है लोग
 मन की बात कभी भी इनके होठों पर नही आ पाती
 गैरों से क्या अपनो से भी कितना डरे हुए है लोग
 इस शहर मे तेरी उलझन कोई क्या समझे क्या सुलझाये
 हर वक्त तो अपनी ही कोई उलझन से घिरे हुए हैं लोग
 जाने कौन है मन्जिल इनकी जाने कहाँ पहुँचना है
जब देखो तब सर पे अपने पाँव धरे हुए है लोग
 मन में कोई उत्साह नहीं जीने की कोई चाह नहीं
अपनी लाश को अपने ही कन्धो पे धरे हुए है लोग
 तेरे शहर का जीना आखिर मुझ को कैसे रास आये
यहाँ अन्दर से सब हुए ठूँठ बाहर से हरे हुए है लोग

Wednesday, April 9, 2008

अब खुदा से भी नही रुकना मेरा तुझसे मिलन

सूर्य की पहली किरन सी मन की धरा पे तुम पडी
तुम ही अब मेरी धरा अब तुम ही आसमान हो
सोच भी तुम समझ भी तुम तुम ही मेरी कल्पना
अब तुम ही मेरे पंख हो तुम ही मेरी उडान हो
 ना गया मन्दिर कभी ना ही की पूजा कभी
 अब तुम ही हो गीता मेरी तुम ही मेरी कुरान हो
 तुम दिया हो आरती का तुम ही थाली आरती की
 तुम ही पूजा हो मेरी तुम ही मेरी भगवान हो
ना सिखाए अब मुझे कोई धर्म क्या अधर्म क्या
 तुम ही मेरा धर्म हो तुम ही मेरा ईमान हो
 मुझसे डूबते को तिनके का सहारा भी हो तुम
नदिया तुम कश्ती तुम और किनारा भी हो तुम
 अब खुदा से भी नही रुकना मेरा तुझसे मिलन
 पार भी तुझ से मिलन मझधार भी तुझसे मिलन
 भोर भी तुम सुबह भी तुम शाम भी तुम रात भी तुम
 दिन की हकीकत हो तुम रातो का हो खवाब तुम
कभी सवाल बन के मेरे सामने खडी हो तुम
 कभी हर इक सवाल का दिखती हो जवाब तुम
 अब तेरे ख्यालों में दिन रात यूँ रहता हूँ गुम
यहाँ वहाँ इधर उधर देंखू जिधर उधर हो तुम
 लोग कहते हैं कि हर इक शै में है खुदा बसा
गल्त कह्ते है हर शै में मुझ को तो दिखती हो तुम
 तुम ही मन्जिल तुम ही साथी तुम ही मेरा रास्ता
अब छोडना न बीच राह तुमको खुदा का वास्ता
 जिन्दगी से तुम गयी तो साँस भी रुक जायेगी
ना भी रुकी तो जिन्दगी इक जिन्दा लाश हो जायेगी
 हाँ मिल गया कभी खुदा तो उससे पूँछूगा बता
 कि उसने मेरे साथ आखिर क्यों ये अन्याय किया
 तुमको बनाया मेरा सब कुछ और तुम्हें मेरी नही

Monday, April 7, 2008

जिस्मो को मिलना ही नही तो मन मिलाना किस लिए

अब छोडिये भी क्या कहें कि आप क्या करते रहे
 पास रह कर भी हमेशा दूरीयां रखते रहे
 ना कभी हाथों मे हाथ ना चले दो कदम साथ
 जाने खुदा किस बात पे चाह्त का दम भरते रहे
 तुम मेरे करीब आओ ये तो कभी हुआ नही
तुम तो बस जबानी जमाखर्च ही करते रहे
 माना मन मिले बिना व्यर्थ है जिस्मों का मिलना
 पर मन से मन मिले हुए तो इक जमाना हो चला
 और कितनी उम्र तक मन मिलाओगे सनम
 पहले ही ये जिस्म तो बरसों पुराना हो चला
 केवल रूहानी प्यार की जो बात करते हैं सनम
या तो खुद पागल हैं या पागल बनाते है सनम
जिस्म के बिना बता रूह का कहीं वजूद है
रूह भी तब तक रहेगी जब तक जिस्म मौजूद है
 जिस्मो को मिलना ही नही तो मन मिलाना किस लिए
 और मन अगर मिलने नही तो आना जाना किस लिए
 मन का मिलना प्यार मे सीढी से ज्यादा कुछ नहीं
जब छत पे चढना ही नही सीढी लगाना किस लिए

Sunday, April 6, 2008

बिन बात किये ही हर एक बात खत्म हो गयी

बिन बात किये ही हर एक बात खत्म हो गयी
 दिन कभी कम पड़ गया कभी रात खत्म हो गयी
 मै ना बोल पाया कुछ तो काश तुम ही बोलती
 खामोशी के तराजू में क्यों शब्द रही तोलती
तुम भी कुछ ना कह सकी मै भी कुछ ना कह सका
 जाने क्यों दिल ने कह दिया कि बात खत्म हो गयी
 ना तो भीगा तन बदन, ना ही बुझी मन की जलन
दो चार बून्दो से कहाँ बुझती है सदियों की अग्न
तन भी प्यासा मन भी प्यासा दोनो प्यासे रह गये
  जाने क्यों मौसम कह गया बरसात खत्म हो गयी
 ना मिली नजरो से नजरें थामा ना हाथो ने हाथ
ना ठहरे संग पल दो पल ना चले दो कदम साथ
ना गिला ना शिकवा ना ही कसम ना वादा कोई
जाने क्यों वक्त ने कहा, मुलाकात खत्म हो गयी
 सदियों की इन्तजार बाद आयी मिलन की रात
 सपनो मे देखा था जिसे, बाहों मे था वो साक्षात
 दिल मे तुफाँ, होठो पे ताले, क्या कहें क्या ना कहें
हम सोचते ही रह गये और रात खत्म हो गयी
बिन बात किये ही हर एक बात खत्म हो गयी

Thursday, April 3, 2008

सूखी घास मे डाल दी है तुमने जलती चिन्गारी

 सूखी घास मे डाल दी ही तुमने जलती चिन्गारी
देखना अब ये गल्ती तुम पे पडेगी कितनी भारी
 सोचा तुमने एक छोर को आग लगा मज़ा लोगे
और जरूरत पड़ी तो अपना छोर बचा तुम लोगे
 पर आग लगी इस छोर तो अंतिम छोर तलक जायेगी
 भडक गयी इक बार तो फिर नही रोके रुक पायेगी
 शान्त तभी होगी ज्वाला जब जलेगी ढेरी सारी
 देखना------
 सीमाओ में बान्धे खडा है बान्ध ये पानी कब से
 एक बून्द भी इधर से उधर हुआ नही ये तब से
तुम क्यों फिर बारूद लगा इस बान्ध को तोड रहे हो
पानी का रुख अपनी ओर ऐसे क्यों मोड़ रहे हो
ये नहर नही ना नदिया है जो सीमाये पह्चाने
टूटा बान्ध क्या क्या ले डूबे ये तू अभी क्या जाने \
अपने संग ये ले डूबेगा तेरी बस्ती सारी
 देखना अब्…॥
 धीरे धीरे हम तो प्रीत को तोड़ चुके थे सब से
प्रियतम से मिलने की आस को छोड चुके थे कब से
हम ने तो इस तन्हाई का गिला किया नही रब से
 फिर कयों रब ने तुझे मिलाया छुड़ा के रिश्ता सब से
तुम ने जानू कह कर मेरी जान ये क्या कर डाला
 बुझे हुये इस मन मे जगा दी फिर से प्रेम की ज्वाला
 जाने कौन जादू की झप्पी तुमने हमको मारी
देखना अब ये गल्ती तुम पे पडेगी कितनी भारी
Posted by Krishan lal "krishan" at 18:20 0 comments

Wednesday, April 2, 2008

जब घर मे तेरी चूड़ी का टूटा हुआ टुकड़ा मिला

मैने तुम से कब कहा कि तुम हो सनम बेवफा
क्यों सुना रहे हो फिर मजबूरियों की दास्ताँ
 पर ये भी कोई यार का यार से मिलना हुआ
 एक इक कदम आगे बढ़ा तो दूजा दो पीछे हुआ
 काफी था राहों में मिलना घर बुला के क्या हुआ
घर में भी जब तू मिला तो फासले रख के मिला
 जिस्मो का स्पर्श तो मानो अनहोनी बात थी
 हाथों को हाथ छू गया तो भी तुझे हुआ गिला
 दूरीयां कायम रही और रात सारी कट गई
किस कदर तहजीब से इक यार यार से मिला
 पर कौन मानेगा मेरी कि फासले कायम रहे
 जो घर में तेरी चूडी का टूटा हुआ टुकडा मिला
 पास रह के इतनी दूरी और अब मुमकिन नहीं
 इतनी दूरी रखनी है तो फिर तूँ दूर ही भला
 बातों से बात बनने वाली है नही मेरे हजूर
प्यार है तो प्यार कर या खत्म कर ये सिलसिला

Monday, March 31, 2008

स्वर्ग की ये अप्सरा धरती पे कैसे आ गयी

चान्द बोला मुझसा सुन्दर है कोई दूजा बता मुझसे मिलती है धरा को चान्दनी जैसी छटा तारे बोले हमसा सुन्दर है कहाँ कोई दूसरा तारों भरे आकाश से सुन्दर नजारा और क्या फूल बोले हम हैं सुन्दर हम से महका ये जहाँ बोला गुलाब मुझ सा रंग रूप मिलता है कहाँ मन मेरा तब कल्पना की वो उडान भर गया चान्द से भी सुन्दर चेहरे का तसुव्वर कर गया गुलाब से भी शोख रंग रूप उसका सोच डाला आँखे गहरी झील सी जो उतरा बस उतर गया नयना कजरारे मिले तो इतने कजरारे मिले नयनों में काजल लगा तो और काला पड गया जुल्फें इतनी रेशमी ढूंढी कि सर पे जब कभी डाला दुपटटा बाद मे पहले नीचे सरक गया माथे पे बिन्दी की जगह इक उगता सूरज धर दिया होठों को वो मिठास दी जिसने चखा वो तर गया देखते ही देखते लाजवाब सूरत बन गयी चेहरे पे नूर इतना कि सूरज भी फीका पड गया बस अब धडकने के लिये इक दिल की मुझे तलाश थी उस की जगह पे मैने अपने दिल का टुकडा धर दिया इस इरादे से कि हर शै से वो सुन्दर बने सारे जहाँ की सुन्दरता इक चेहरे में ही भर गया मैं तो अपनी सोच में कुछ और था बना रहा मुझ को क्या खबर थी तेरा अक्स है उभर गया देख के सूरत तेरी चान्द भी शरमा गया और गुलाब के भी माथे पर पसीना आ गया रंग रूप देख तेरा मेनका घबरा गयी स्वर्ग की ये अप्सरा धरती पे कैसे आ गई अच्छे बुरे नसीब का पैमाना क्या है तय हुआ ये बात हर इक शख्स को तुझे देख समझ आ गई बदनसीब वो हुआ तू जिससे दूर हो गई वो खुशनसीब हो गया तूँ जिसके पास आ गई

Friday, March 28, 2008

देखते ही देखते आकाश खाली हो गया

कटने को अकेले भी तो कट रही थी जिन्दगी
हर उम्मीद मर चुकी थी हर तमन्ना दफन थी
 बेशक कोई खुशी ना थी लेकिन कोई गम भी ना था
 जब तक ना तुम मुझसे मिली, मै मिला तुम से ना था
 त्तुम से क्या मिला कि हर उम्मीद जिन्दा हो गई
सोच मेरी फिर से इक उडता परिन्दा हो गई
 सोये सब अरमान मेरे इक ही पल में जग गये
हर दबी उमंग को फिर पंख जैसे लग गये
 मेरी उम्मीदें मेरी उमगें मेरी तमन्ना मेरे अरमाँ
सब थे ऊँचे उड़ रहे कम पड़ रहा था आसमाँ
 मस्त हो कर उड़ रहे थे सब खुले आकाश में
 कुछ थे दूर दूर तो कुछ थे पास पास मे
 क्या हंसी नजारा था सारा गगन हमारा था
 ये सब दिखाने के लिये मैने तुझे पुकारा था
 बस इक नजर डाली थी तुम ने उस भरे आकाश पे
मेरी तमन्ना मेरी उम्मीदों और मेरे विश्वास पे
 फिर घायल पक्षी की तरह सब नीचे को गिरने लगे
 कुछ तडफडाते गिर पडे कुछ गिरते ही मरने लगे
 देखते ही देखते आकाश खाली हो गया
मानों किसी गरीब की रोटी की थाली हो गया
 पर ना जाने क्यों तुम अब भी मुस्कराती जा रही थी
 शायद अपनी करनी पे तुम बहुत इतरा रही थी
 अलविदा अलविदा कह दूर होती जा रही थी
 फिर ना मिलने की हिदायत मुझ को देती जा रही थी
 यूँ लगा, लगने से पहले खत्म मेला हो गया
 तेरा साथ पाने की चाह में मैं और अकेला हो गया
 काश वो नजारा मैने तुम को दिखलाया ना होता
 तुम मेरी होती ना होती पर ये तेरा गम तो ना होता

Wednesday, March 26, 2008

देखते ही देखते आकाश खाली हो गया

कटने को अकेले भी तो कट रही थी जिन्दगी हर उम्मीद मर चुकी थी हर तमन्ना दफन थी बेशक कोई खुशी ना थी लेकिन कोई गम भी ना था जब तक ना तुम मुझसे मिली, मै मिला तुम से ना था त्तुम से क्या मिला कि हर उम्मीद जिन्दा हो गई सोच मेरी फिर से इक उडता परिन्दा हो गई सोये सब अरमान मेरे इक ही पल में जग गये हर दबी उमंग को फिर पंख जैसे लग गये मेरी उम्मीदें मेरी उमगें मेरी तमन्ना मेरे अरमाँ थे भर रहे ऊँची उड़ान कम पड़ रहा था आसमाँ मस्त हो कर उड़ रहे थे सब खुले आकाश में कुछ तथ दूर दूर तो कुछ थे पास पास मे क्या हंसी नजारा था सारा गगन हमारा था तुझको दिखाने के लिये मैने तुझे पुकारा था बस इक नजर डाली थी तुम ने उस भरे आकाश पे मेरी तमन्ना मेरी उम्मीदों और मेरे विश्वास पे फिर घायल पक्षी की तरह सब नीचे को गिरने लगे कुछ तडफडाते गिर पडे कुछ गिरते ही मरने लगे देखते ही देखते आकाश खाली हो गया मानों किसी गरीब की रोटी की थाली हो गया पर ना जाने क्यों तुम अब भी मुस्कराती जा रही थी शायद अपनी करनी पे तुम बहुत इतरा रही थी अलविदा अलविदा कह दूर होती जा रही थी फिर ना मिलने की हिदायत मुझ को देती जा रही थी यूँ लगा, लगने से पहले खत्म मेला हो गया तेरा साथ पाने की चाह में मैं और अकेला हो गया काश वो नजारा मैने तुम को दिखलाया ना होता तुम मेरी होती ना होती पर यूँ तेरा गम भी ना होता

Saturday, March 22, 2008

जिसको भी देखा मुस्का के उसको ही घायल कर डाला

तेरी गर्दन एक सुराही है तेरे होंठ है इक मय का प्याला
 तेरे नयन हैं मय का स्त्रोत प्रिय तेरा स्पर्श बनाये मतवाला
 जिसको भी देखा मुस्काके उसको ही घायल कर डाला
अब जाने खुदा या तू ही बता तूँ बला है या फिर है बाला
 ये मय है या अमरत्व टपकता है तेरे इक इक अंग से
कभी लगे कि जिन्दा मार दिया कभी लगे अमर है कर डाला
 किस किस अंग की तारीफ करू है नशा तेरे इक इक अंग में
 तेरी चाल करे बेहाल चले तू इस ढंग से या उस ढंग से
 कुछ होश नही रहता मुझको जब होता हूँ तेरे संग में
मुझ को तो नशीली लगती हो देखा तुमको जिस भी रंग में
 कभी लगे तुँ एक सुराही है कभी लगे तूँ है मय का प्याला
 कभी मुझ को नजर आती है तूँ सारी की सारी मधुशाला
 जो भी है लेकिन ये तय है कि अब ये तेरा मतवाला
 तेरी मह्फिल से प्यासा ही नहीं लौट के अब जाने वाला
 मै कई वर्षों का प्यासा हूँ नही पीना इक दो जाम प्रिय
सारी की सारी मधुशाला तुम कर दो मेरे नाम प्रिय
 ता उम्र जो प्यासा बैठा रहा उसे कुछ तो मिले ईनाम प्रिय
 फिर उसके बाद चाहे तो खुदा बेशक कर दे मेरी शाम प्रिय
 अन्जाम-ए-सफर इससे बेहतर क्या देखा फरिश्तों ने होगा
 दम निकलेगा तेरी बाहों मे होंठों पे होगा तेरा नाम प्रिय

Friday, March 21, 2008

क्यों अपने रंग रूप का ,इतना तुझे गरूर है

क्यों अपने रंग रूप का इतना तुझे गरूर है
  है अब जवानी की दोपहरी तो सान्झ कितनी दूर है
 इक बार सांझ हो गई तो रात भी घिर आयेगी
फिर लाख तूँ करना यत्न ये बात ना रह पायेगी
 आँखों से कुछ दिखना नहीं फिर नैन लडने किस से है
 मुँह में दाँत ही ना होंगें तो हंसके किसको दिखायेगी
 बाल सब सफेद होंगे शायद झडने भी लगेंगे
फिर ये जाल जुल्फों का किस पे तूं फैलायेगी
 ना उमंग कोई मन में होगी ना कशिश तेरे तन में होगी
 किस से फिर होगा मिलन तू किस से मिलने जायेगी
 इस लिये कहता हू मेरी मान कल पे टाल मत
ढूंढ हर जवाब मुझ में कर खुद से तू सवाल मत
 जो मिला है आज वक्त हर रोज मिल पाता नहीं
कल का क्या है ये कभी आता कभी आता नहीं
 कुदरत की दी सौगात का कर पूरा इस्तेमाल तू
यू भी ढल ही जायेगा हुस्न कितना भी संभाल तू
 चाहने वालों की चाहत जो कोई ठुकराता है
 ता उम्र चाहत के लिये फिर खुद भी तरस जाता है

Wednesday, March 19, 2008

जितनी भी होनी थी होली तुम संग होली होली

कभी खेला करते थे होली हम जिद्द करके सब से
जबसे हुआ बदरंग ये जीवन छुए नही रंग तब से
 यूँ तो होली खेलने साथी अब भी आ जाते हैं
 पर जीवन हो बदरंग तो फिर रंग कहां कोई भाते है
 तुमने 'जानू' कह कर मेरी जान ये क्या कर डाला
 रंगहीन जीवन में मेरे फिर से रंग भर डाला
 फिर से जगा दी सोई उमंगे तुमने बन हमजोली
मन मे हुडदंग मचा रही है अरमानो की टोली
 तुमने हम पे रंग डाल के कर तो दी शुरूआत
 अब देखना किन किन रंगो की होगी तुम पर बरसात
अंग अंग भीगे ना जब तक तब तक होगी होली
 अब ना बचेगी तेरी चुनरिया अब ना बचेगी चोली
 डरते डरते चुटकी भर रंग इक दुजे को लगाना
 मै ना मानू इस को होली मै ठहरा दिवाना
बस माथे गुलाल का टीका ये भी हुई कोई होली
ना रंगो से रंगी चुनरिया ना ही भीगी चोली
 होली मे भी सीमाओ का क्यो रखना अहसास
 भूखा ही मरना है तो फिर तोडना क्यों उपवास
 खेलनी है तो जम कर खेलो मस्ती भरी ये होली
 मातम की तरह ना मनाओ होली मेरे हमजोली
 होली को होली सा खेलो या रहने दो हमजोली
 जितनी भी होनी थी होली तुम संग होली होली

Tuesday, March 18, 2008

अपने समुन्दर होने पे होगा तू इक दिन शर्मसार

तुम से मिल के जिन्दगी,सोचा था,संवर जायेगी
क्या खबर थी बात पहले से भी बिगड़ जायेगी

 हम तो वीराने में अपने आदतन खुश रह रहे थे था
 क्या पता गुलशन मे तेरे ये खुशी भी जायेगी

 फूलों का हकदार बनाना तो नामुमकिन ही था
 तूँ हमको फूलों की महक का हक भी ना दे पायेगी

 दिल कहां लगता है ऐसे गुलशन में तूँ खुद बता
गुल पे हक किसी और का,माली तूँ मुझको बनायेगी

 ना सही असली कुछ नकली महक तो तूँ डालती
 इन कागजी फूलों पे कब तक भंवरे को उलझायेगी

 समुन्दर के पानी की तरह हुस्न की मालिक हो तुम
 दो बून्द भी जिसकी किसी प्यासे के काम ना आयेगी

 अपने समुन्दर होने पे होगी तूँ उस दिन शर्मसार
प्यासे की प्यास ओस की बून्दों से जब बुझ जायेगी

Monday, March 17, 2008

तूँ नहीं गर लाश तो कन्धो पे क्यों सवार है

इक दिया बुझ जाये तो दूजा जलाना चाहिये
हर हाल अन्धेरा तुम्हे मन से भगाना चाहिये
 तूँ खुशनसीब है तुम्हे जो छोड गया बेवफा
वैसे तो बेवफा से खुद पीछा छुडाना चाहिये
 जुल्म करके तुम पे, कोई खुश रहे, होने ना दे
कोई सबक तो तुम्हे उसको सिखाना चाहिये
 तूँ मेरा साथ दे ना दे लेकिन मै साथ हूं तेरे
 इक इशारा तेरा मुझ तक पहुंच जाना चाहिये
 मजिल अलग रस्ते जुदा पर ऐसा कुछ करे खुदा
 हर मोड़ पे तेरा मेरा, रस्ता मिल जाना चाहिये
 मन्जिल या रस्ता हो कोई बस तूँ हो मेरा हमसफर
इस नामुमिकन को तुझे मुमकिन बनाना चाहिये
 गर तूँ नहीं है लाश तो कन्धो पे क्यों सवार है
अपना बोझ अपने ही, पैरों पे आना चाहिये

Friday, March 14, 2008

यार की शर्मिन्दगी मुझ से ना सही जायेगी

मेरी दुआओं का खुदा, इतना तो असर हो जाये
या उसे तकलीफ न हो, या मुझको खबर हो जाये
 ना वो समझा है, ना समझेंगा जरूरत को मेरी मेरे खुदा,
कुछ ऐसा कर, मुझ को ही सब्र हो जाये
 मेरी जरूरत जानकर, अन्जान बन रहा है आज
क्या पता लेकिन उसे, कल मेरी फिक्र हो जाये
 तब यार की शर्मिन्दगी, मुझ से ना सही जायेगी
 मेरी जरूरत यार बिन, तब तक ना पूरी हो जाए
 पार उतरना उसका, मुश्किल भी है, ना मुमकिन भी है
 है यार मेरा वो , जो पानी देख के भी डर जाए
 मेरे खुदा आँखो पे उसके, बान्ध पटटी इस तरह
पानी जमींन सा दिखे, और पार वो उतर जाये
 उसकी 'ना' सुनने की तो आदत रही है बरसों से अ
ब तो ये है फिक्र कि वो 'हां' कहीं ना कर जाये
 मैं जानता हूँ 'वो' मेरा, हमसफर बनेगा जरूर
डर ये है तब तक कहीँ खत्म सफर ना हो जाये

Thursday, March 13, 2008

क्यों हम को भुला बैठे हो सनम

एक उड़ान के भरते ही तुम हमको भुला बैठे हो सनम
 अभी ना जाने तुमको कितनी और उड़ाने भरनी हैं
 जाने किस मन्जिल पहुंचे हो जो बातचीत भी बन्द हुई
 तुमको तो जीवन मे ऐसी कई मन्जिल तय करनी है
 मुझ वक्त के मारे इन्सां से वैसे भी तुम्हें क्या मिलना था
मन गम से बुझा तन उम्र ढला यही चीजे तो मिलनी हैं
 मेरे गम को देख के अपनी आँखे नाहक नम ना कर
 मेरे कारण अपनी खुशियां तुझे काहे को कम करनी है
 पहली बार तुम दूर गयी तकलीफ हुई दिल को ज्यादा
 आखिर तो दूरी सहने की आदत इक दिन हमें पड़नी है
 मै ना तो मन्जिल हूँ तेरी ना ही राहों का साथी हूँ
 फिर मुझ से जुदा होने के लिये काहे को देरी करनी है
 तुम्हे तो उड़ने की खातिर आकाश भी छोटा पड़ता है
मेरे पास तो पाँव रख पाने को जमीँ ही मिलनी है
 मुझ संग रह कर पंख तेरे और भी कम हो जाने थे
और तुझे गगन मे उड़ने की हसरत अभी पूरी करनी है
 औरों से ऊँचा उठने का अहसास सुखद होता है बहुत
 पर मत भूलो कि हर उड़ान इक रोज़ जमीँ पे उतरनी है

Wednesday, March 12, 2008

सब के हाथों मे पत्थर है और निशाने पे मेरा दिल

अपने उसूलो पे जी पाना इतना भी आसान नहीं
सबसे अलग पहचान बनाना इतना भी आसान नहीं
 बनी बनाई राह पे चलना कौन काम है मुश्किल का
अपनी राहें खुद ही बनाना इतना भी आसान नहीं
 जिसके मन सी नहीं कर सका वो ही हमसे दूर हो गया
 सब के बीच तन्हा जी पाना इतना भी आसान नहीं
 आप ही जगना आप ही सोना आप ओढ़ना आप बिछौना
 आप ही पाना आप ही खोना आप ही हंसना आप ही रोना
 हर आँसू को अकेले पीना तुम क्या जानो कितना मुश्किल
 खुद को तसल्ली खुद दे पाना इतना भी आसान नहीं
 पड़ी जरूरत मदद की जब भी खुद को दे आवाज बुलाया
खुद के लिये खुदा बन जाना इतना भी आसान नहीं
 इसके ताने उसके उल्हाने कैसे सहे सब तूँ क्या जाने
 पर लब पे तेरा नाम ना लाना इतना भी आसान नहीं
 गम को छुपा औरो संग हंसना अपने आप मे है मुश्किल
 पर अपने आँसू खुद से छुपाना इतना भी आसान नहीं
 आँख छलक आई मेरी तो इतने क्यों हैरान हो तुम
इन्सां के लिये पत्थर बन जाना इतना भी आसान नहीं
 सब के हाथों मे पत्थर है और निशाने पे मेरा दिल
 ऐसे मे इस दिल को बचाना इतना भी आसान नहीं

Tuesday, March 11, 2008

यार यूँ ही बेवफाई क्यों करेगा यार से

बेवफाई और वफा मजबूरी हैं दोनों प्यार में
फिर काहे जतलाना किसी भी बात का बेकार में
 आपने वादा किया आये नहीं तो क्या हुआ
कुछ दिन तो अच्छे कट गये यूँ तेरे इंतजार मे
 मुझको है अहसास कि मिलने मे वो मज़ा कहाँ
 जो मज़ा आता है अपने यार की इन्तजार मे
 आप फिर वादा करो मै फिर करूँगा इन्तजार ये
 उम्र सारी काट सकता हूँ तेरे इन्तजार में
 जीवन है ऐसे मोड़ पे कोई साथ दे सकता नहीं
 साया भी साथ छोड़ गया क्या गिला फिर यार से
 यूँ भी हर वादा तो किसी का वफा होता नहीं
जो तुम ना पूरे कर सके वादे वो बस दो चार थे
 तूँ है मेरा प्यार बेशक लाख तड़पाये मुझे
 मैं खफा होता नहीं हरगिज भी अपने प्यार से
 क्या पता मजबूरियां कितनी रहीं होंगी तेरी
यार यूँ ही बेवफाई क्यो करेगा यार से

मै खफा होता नहीं हरगिज भी अपने प्यार से

गर बेवफाई और वफा मजबूरी हैं दोनों प्यार में तो काहे जतलाना किसी भी बात का बेकार में आपने वादा किया आये नहीं तो क्या हुआ कुछ दिन तो अच्छे कट गये यूँ तेरे इंतजार मे मुझको है अहसास कि मिलने मे वो मज़ा कहाँ जो मज़ा आता है अपने यार की इन्तजार मे आप फिर वादा करो मै फिर करूँगा इन्तजार ये उम्र सारी काट सकता हूँ तेरे इन्तजार में जीवन है ऐसे मोड़ पे कोई साथ दे सकता नहीं साया भी साथ छोड़ गया क्या गिला फिर यार से यूँ भी हर वादा तो किसी का वफा होता नहीं जो तुम ना पूरे कर सके वादे वो बस दो चार थे तूँ है मेरा प्यार बेशक लाख तड़पाये मुझे मैं खफा होता नहीं हरगिज भी अपने प्यार से क्या पता मजबूरियां कितनी रहीं होंगी तेरी यार यूँ ही बेवफाई क्यो करेगा यार से मै अभी से किस तरह कह दूँ तुम को बेवफा किनारे पे होगा फैसला क्या कहूँ मझधार में

Monday, March 10, 2008

जिस मोड़ पे छोड़ा था साथी तूने हमको

जिस मोड़ पे छोड़ा था साथी तुने हमको
उसी मोड़ पे बैठे हैं तबसे अब तक हम तो
किसी रोज़ ना चाह कर भी पड़ी मेरी जरूरत तो
पाओगे हमे कैसे, ढूंढोगे कहां हम को
 जिस मोड़ पे छोड़ा था कई राहें मुड़ती थी
 कोई इससे जुड़ती थी कोई उससे जुड़ती थी
 चाहता तो मुड़ जाता इस ओर या फिर उस ओर
दरवाजा भले बन्द था कई खिड़कियां खुलती थी
लेकिन ना जाने कयों नहीं ठीक लगा मुड़ना
 किसी रोज़ ना चाह कर भी तुम्हें हम से पड़ा जुड़ना
तो पाओगे हमे कैसे ढूंढोगे कहाँ। हम को
 जिस मोड़ पे छोड़ा था नीरस था हुआ जीवन
 नये सपने बुनने को करने lगा था मन
 मन किया बहुत कोई तब गीत नया बुन लूँ
कोई साज नया छेड़ूं सगीत नया सुन लूँ
 तन्हाई के आलम में ऐसा भी लगा जायज
 कोई प्रीत नयी ढूंढू कोई मीत नया चुन लूँ
 जाने क्या सोचके हम कुछ भी नहीं कर पाये
 शायद ये रही चाहत कि तूँ ही लौट आये
किसी रोज़ ना चाह कर भी पड़ा लौटना जो तुमको
 तो पाओगे हमे कैसे ढूंढोगे कहाँ हमको
 उसी मोड़ पे बैठे हैं तबसे अब तक हम तो
 जिस मोड़ पे छोड़ा साथी तुने हमको

Thursday, March 6, 2008

जिससे भी सोची प्यार की वो ही खुदा हो गया

कुछ तो बता मेरे खुदा ऐसा क्या मुझसे हो गया
मेरी जमीं भी खो गयी और आसमाँ भी खो गया
 सोचा था घर छूटा तो क्या इतना बड़ा जहाँ तो है
 पर मेरे छोटे घर से भी छोटा ये जहाँ हो गया
 छूटा उसका साथ तो हर साथ कम पड़ने लगा
 मै भरी दुनिया के रहते कितना तन्हा हो गया
 शायद किसीके प्यार के काबिल नही रहे है हम
जिससे भी सोची प्यार की वो ही खुदा हो गया
 वो थी घर था हक से मिलती थी कभी रोटी हमें
 पर अब कटोरा भीख का थाली की जगह हो गया
 हसरत भरी नजरों से अब तो देखता हूँ रोटियाँ
 मै दरबदर भटकते भिखारी की निगाह हो गया
 जिस भी दिये से मैने घर मे रोशनी की सोच ली
वही चान्द सूरज बनके किसी आसमाँ का हो गया
 चान्द से बेहतर ही है , माटी का वो नन्हा दिया
 जिस दिये से घर किसी मुफलिस का रोशन हो गया
 कोई लाख सुन्दर हो,सलौना हो,किसीसे हमको क्या
 दिये से घर रोशन तो था, चान्द तुझ से क्या मिला

Wednesday, March 5, 2008

अब नया हम गीत लिखेंगें

अब नया हम गीत लिखेंगे तुझ संग मेरे मनमीत लिखेंगे रेत पर इन उंगलियों से नाम लिख के होगा क्या आती लहर मिट जायेगा ये प्यार का नामों निशाँ पत्थर के सीने पे अब हम लफ्ज-ए-प्रीत लिखेंगे अब नया हम गीत लिखेंगे……॥ प्यार तुम से था तुम्ही से है और तुम से ही रहेगा इस से ज्यादा खुद बता दिल और तुझसे क्या कहेगा अच्छा लगे तो ठीक वरना और कुछ नवनीत लिखेंगे अब नया हम गीत लिखेंगे…… जिन्दगी भर कोई बाजी हम ने कभी हारी नहीं तेरे दर से खाली हाथ लौटू मै कोई भिखारी नहीं हक है तेरे प्यार पे इसे लेके अपनी जीत लिखेंगे अब नया हम गीत लिखेगे……।

Monday, March 3, 2008

होंठों से, उसके गालों पे, मै कविता लिख के आ गया

इतिहास अपने आप को इक बार फिर दोहरा गया
वो मुस्कराये थे आदतन मुझे प्यार का भ्रम छा गया
 अपना समझने की उसे , जो भूल हम से हो गयी
उस भूल की सजा मैं जुर्म से भी ज्यादा पा गया
 किसका प्यार सच्चा किसका झूठा था अब क्या कहें
 जो भी मिला बस गरज़ तक रिश्ता हमसे निभा गया
 जो जान तक देने की , हमसे , था रोज़ उठवाता कसम
 हमने कुछ माँगा तो , गठरी , समेट के वो चला गया
 इक अपनी चीज के सिवा, नही कोई भी अपना यहाँ
 आया समझ हर रिश्ता जब, मुँह मोड़ता ही चला गया
 अच्छा था मुस्करा के यूँ, हम से ना वो मिलता कभी
 मुस्कराना उसका, दिल में, बेवजह ही प्यार जगा गया
 ऐसी कहानी प्यार की, तूने क्यों लिखी, ए मेरे खुदा
 अन्त जिस कहानी का, शुरू होने से पहले आ गया
 उम्मीद थी जिससे कि जख्मो पे लगायेगा मरहम
वो ही जख्मों पर मेरे, एक और जख्म लगा गया
 वो रोज कहते थे , कविता , हम पे भी, लिखो कोई
 होठो से, उसके गालो पे, मै कविता लिखके आ गया

Sunday, March 2, 2008

देखिये अब कौन रह पाता है अपने होश में

उसको खुदा ने बख्शा है , शबाब अभी अभी
साकी ने डाली है जाम में, शराब अभी अभी
 देखिये अब कौन रह पाता है अपने होश में
चेहरे से उसने उठाया है नकाब अभी अभी
 सब को पता चल जायेगा तू है कितनी बेवफा
 लिखी है तुझपे जिन्दगी इक किताब अभी अभी
 अब वो समझ जायेगा,क्या है प्यार,क्या वफा
 खुली है नींद, टूटा है उसका ख्वाब अभी अभी
 क्या पता क्या होगा हश्र, खिजां मे फूलों का
मुरझा रहे हैं बहार मे खिले गुलाब अभी अभी
 इनायतों से ज्यादा ही निकले हैं आपके सितम
 हम ने किया है पिछला सब हिसाब अभी अभी
 फूले नहीं समा रहें बाहों मे जिसको लेके आप
निकला था बाहों से मेरी वो जनाब अभी अभी
 हाथों में लेके नश्तर फिर सब दोस्त आ गये
जो लगी खबर मेरा जख्म इक है भरा अभी अभी

Friday, February 29, 2008

लोग कह्ते है कवितायें ना लिखा कीजे

लोग कहते हैं कवितायें ना लिखा कीजे ।
 दर्द जब हद से गुजर जाये तो फिर क्या कीजे ॥
 वो जो कहते है मेरे गीत है बस दर्द भरे ।
 छाले मेरे दिल के कभी उनको दिखा ही दीजे
॥ जो सलाह देते है उम्मीद से जीने की सदा ।
 जहर जो मैने पिया थोड़ा उनको चखा ही दीजे
 फिर ना हसरत से कभी देखेगी किसी दुल्हन को
 मेहन्दी उन हाथों मे इक रोज लगा तो दीजे
 जो भी मिलता है कोई जख्म नया देता है
किन्हीं हाथों में मरहम,खुदा,अब तो थमा भी दीजे
 कोई देता है जख्म कोई छिड़कता है नमक
 रह गयी हैं क्या जमाने मे ये दो ही चीजे
 जख्म देखेंगे तो दिल उनका दहल जायेगा
मेरे जख्मों को किसी तरह छुपा भी दीजे

Thursday, February 28, 2008

उस रोज तुम खुद को कहोगे बेवफा

इस हाद्सों के शहर मे हो ही गया फिर हाद्सा
मैने भले रखा कदम एक एक संभलते हुये ॥
 सोचा ना था मिल जायेगी सरेराह हम को जिन्दगी
 हम तो गुजरे थे इधर से यूँ ही टहलते हुये ॥
 पेश ना करते कभी तेरे सामने शीशे का दिल
तेरे हाथों में गर देख लेते पत्थर उछलते हुये
 जिस दम पे तुम दम ठोंक ठुकराते रहे हरदम
मुझे आज देखेंगे हमदम तेरा दम वो निकलते हुये
 हाथों मे हाथ डाल तमन्ना थी तेरे संग चले
पर रह गये है देख खाली हाथ हम मलते हुये
 ये ना कह, तेरा मिलन, मुझसे कभी मुमकिन ना था
 देखा नहीं, क्या तुमने, धरती से गगन मिलते हुये॥
 चलो मै नही कह्ता,पर तुम खुद को कहोगी बेवफा
 जिस रोज शीशा देखोगी,सुबह आँख तुम मलते हुये

Wednesday, February 27, 2008

याद इतना भी कोई ना आये हमें

दिल की नाजुक रगें तक लगें टूटने
याद इतना भी क्यों कोई आये हमें
 चैन दिन मे नहीं नींद रातों से गुम
इस तरह से कोई क्यों सताये हमें
 वो लगायेंगे मरहम,तसल्ली तो दें
 फिर भले जख्म रोज देते जायें हमें
 प्यार उनसे किया जुर्म हमसे हुआ
फिर सजा से कोई क्या बचाये हमे
 प्यार ही दर्द है तो ये भी मंजूर है
 कोई दर्द-ए-दवा ना पिलाये हमें
 उनकी राहों से चुनने है काँटे अभी
कोई फूलों की राह ना दिखाये हमे
 ये है कैसी गजल जिसके हर लफ्ज में
 यार का अक्स ही, नजर आये हमें
 रोज सपनों में आने से क्या फायदा
 कोई सपना तो सचकर दिखायें हमें

Saturday, February 23, 2008

शहर में शीशे का घर, भूल ना कर

चाहो तो, बुझा दो तुम, चिराग सब जलते हुये
 हमने देखा है , नये सूरज को निकलते हुये॥
 अब बता, कहाँ जायेगा, दरवाजा हर इक बन्द है।
कुछ तो सोचा होता, अपने घर से निकलते हुये॥
 ये हादसो का शहर है, तो होके रहेगा हादसा
लाख तुम रखना कदम, एक एक संभलते हुये
 राहों मे ,कान्टे हटा ,किसी राह को आसान कर
 गुजरना क्या गुलशन से हर इक फूल मसलते हुये
 इस शहर में,शीशे का घर,ये भूल ना करना कभी
 इस शहर मे दिखते हैं अक्सर ,पत्थर उछलते हुये
 खून उस अरमाँ का, होते देखूँ , ये मुमकिन नहीं
जिसे दिल के पालने मे, देखा बच्चे सा पलते हुये
 अब नहीं कहते कभी, किसी यार को हम बेवफा
 बस साथ शीशा रखता हूँ इस राह मे चलते हुये
 गिरगिट पे रंग बदलने का, इल्जाम ना आता कभी
 देखते इन्सां को गर, मौका बेमौका, रंग बदलते हुये
 क्या वफा क्या दोस्ती क्या प्यार क्या है अपनापन
 मौसम के साथ देखे , सबके मायने बदलते हुये

Thursday, February 21, 2008

मुझ से गुनाह हो गया

जिन्दगी मे जब कभी , मुझ से गुनाह हो गया
 हर शख्स इक इन्साफ पसन्द, शहँशाह हो गया
 बाप का साया जो मेरे सर से उठ गया तो फिर
देखो जिसे मेरे लिये, वो ही जहाँपनाह हो गया
 माँ की नजरों में सदा मेरा स्याह भी सफेद था
 बन्द वो आँखे हुई,और सफेद भी स्याह हो गया
 मेरी तबाही से तरक्की सबकी इतनी हो गयी
फकीर तक मेरे लिये कोई बादशाह हो गया
 मुँह लगा बोतल से पीते थे ये कल की बात है
 अब तो, बोतल देखना तक, भी गुनाह हो गया
 सजा का फैसला तो पहले ही से तेरे मन में है
क्यों पूछना कब, कैसे और क्या गुनाह हो गया
 जीत ही लेता मुकदमा तुझ से मै ये प्यार का
 पर दिल ही मेरा, देकर दगा, तेरा गवाह हो गया

Wednesday, February 20, 2008

प्यार तुम से और बढ़ता जा रहा है

वक्त ज्यों ज्यों गुजरता जा रहा है
प्यार तुम से और बढता जा रहा है
 सोचा था हालात की इस चिलचिलाती धूप में
मर जायेंगी मेरी ये सारी पौध जैसी हसरतें
पर जाने कौन किस्म है,इस पौध की या मेरे रब
प्यार का पौधा तो बेहिसाब बढ़ता जा रहा है
 वक्त ज्यों…………॥
 सोचा फिर अब कह ही दूँगा मुझ को तुमसे प्यार है
जीना क्या मरना भी अब तेरे बिना दुश्वार है
 पर जाने किस हद तक आ पहुंचा है मेरा प्यार अब
 कुछ भी कहना अब तो बेमानी सा होता जा रहा है
वक्त ज्यों…………
 अब ये सोचा है कि अब से कुछ भी ना सोचेंगे हम
तूँ ही बता, इस दिल को आखिर कितना और रोकेंगे हम
इसे रोकने में आजतक मिली किस को कामयाबियां
 मेरा दिल भी, अब तो बगावत पर उतरता जा रहा है
 वक्त ज्यों ज्यों गुजरता जा रहा है
प्यार तुम से और बढ़ता जा रहा है

Monday, February 18, 2008

सच मानो दुर्योधन नहीं मरा

जाने क्यों लगता है मुझ को कभी कभी
युद्ध महाभारत का नहीं हुआ है खत्म अभी
 (1) मन के इस कुरूक्षेत्र मैं आज भी इच्छा रूपी सेनाये,
 अपने अपने अस्त्र शस्त्र,हाथों में उठायें
 कर रही हैं शंखनाद ।
हर कोई एक दुसरे पर,बलवती होना चाहता है
 विजय सब को पसन्द है हारना कोई नहीं चाहता है ।
पर आज का विदुर इस बात से क्षुब्ध है,
 कि इस युद्ध का ना कोई नियम है ना धर्म,
ये कैसा महाभारत है, कैसा धर्म युद्ध है
 कभी भी ,कोई भी अस्त्र्, हो सकता है प्रयोग,
साम दाम दण्ड भेद या इन सब का योग
छल कपट मक्कारी या फिर बेईमानी
क्योंकि, अब युद्ध जीतना ही काफी है
 कैसे जीता, ये हो चुका है बेमानी।
 (2) जाने कयों लगता है मुझे,
 कि मन के इस 'कुरुक्षेत्र' मे ,
 मैं ही अर्जुन हूँ ,
तो मै ही दुर्योधन,
मैने स्वयं ही स्वयं को मारना है
या यूँ कहो, स्वयं ही जीतना है ,स्वयं ही हारना है
 मै अर्जुन , किंकर्त्वयविमूढ सा खड़ा समझ नही पाता
कि मैं भला स्वयं ही स्वयं को कैसे मार सकता हू
और स्वयं को जिताने के लिये, स्वयं कैसे हार सकता हूँ
 (3) तभी मैं स्वयं ही 'कृष्ण' बन जाता हूँ स्वयं ही स्वयं को समझाता हूँ
 कि यदि इस युद्ध मे 'दुर्योधन' नहीं मरा, तो अनर्थ हो जायेगा
पता नहीं ये दुर्योधन कब
,किस किस दुशासन से, किस कि्स द्रोपदी का 'शीलहरण' करवायेगा ।
 यह सोच ,मै अन्दर तक काँप जाता हूँ
क्योंकि द्रोपदी भी ,मै खुद को ही पाता हूँ
 (4) पर पिछले हर अनुभव से हतोत्साहित
, मुझ अर्जुन सेअपना गाण्डीव नहीं उठता
हे कृष्ण, मै ये युद्ध अब और नहीं कर सकता
अपना समय अपनी ताकत व्यर्थ नहीं कर सकता
आपके कहने पर मैने अक्सर अपना गाण्डीव उठाया है
 तर्क वितर्क का हर तीर भी आजमाया है
 पर हर बार नतीजा , वही ढाक के तीन पात ही आया है
दिल का 'ये' दुर्योधन ना कभी हारा ना मरा
इसे हमेशा जिन्दा ही पाया है
 हे कृष्ण
अगर इस तरह दुर्योधन , मर सकता या मर गया होता
 तो ये महाभारत कब का खत्म हो गया होता
 पर ये तो आज भी अपनी मनमानी करता फिरता है,
ना इस की 'सेना ' मरती है , ना ये आप ही मरता है
 इसलिये प्रभु मुझे अब क्षमा कीजिये
और हार स्वीकार कर युद्ध समाप्त करने की अनुमति दीजिये।
 (5) हे अर्जुन,
 ऐसा नहीं कि मैं कृष्ण ये बात नहीं जानता
 ये दुर्योधन नहीं मरने वाला मै ये भी हूँ मानता
 फिर भी ये युद्ध समाप्त करने की अनुमति मै नहीं दे सकता
 क्योंकि एक बात तूँ नहीं जानता।
 ये युद्ध मेरे द्वारा ही प्रेरित है।
और इस युद्ध को जारी रखने में ही हम सब का हित है
। हे अर्जुन ,
ना भी मरा दुर्योधन तो कम से कम इस युद्ध मे उलझा तो रहेगा
 और इस तरह तब तक कई 'द्रोपदियां 'बची रहेंगी,\
 'हस्तिनापुर' भी बचा रहेगा
 (6) तब मैं अर्जुन
, अनमने मन से ही सही, फिर गाण्डीव उठाता हूँ
 और 'महाभारत' अभी जारी है
इसका शंखनाद बजाता हूं

मन के इस कुरूक्षेत्र में

जाने क्यों लगता है , मुझ को कभी कभी युद्ध महाभारत का खत्म नही हुआ अभी (1) मन के इस कुरूक्षेत्र मैं आज भी इच्छा रूपी सेनाये, अपने अपने अस्त्र शस्त्र, हाथों में उठायें कर रही हैं शंखनाद हर कोई एक दुसरे पर, बलवती होना चाहता है विजय सब को पसन्द है हारना कोई नहीं चाहता है पर आज का विदुर इस बात से क्षुब्ध है, कि इस युद्ध का ना कोई नियम है ना ही कोई धर्म, तो ये कैसा महाभारत है कैसा धर्म युद्ध है कभी भी कोई भी अस्त्र्, हो सकता है प्रयोग, साम दाम दण्ड भेद या इन सब का योग छल कपट मक्कारी या फिर बेईमानी क्योंकि, अब युद्ध जीतना ही काफी है कैसे जीता, ये हो चुका है बेमानी। (2) और जाने कयों लगता है मुझे, कि मन के इस कुरुक्षेत्र मे , मैं ही अर्जुन हूँ ,तो मै ही दुर्योधन, मैने स्वयं ही स्वयं को मारना है या कहो, स्वयं ही जीतना है ,स्वयं ही हारना है मै अर्जुन , किंकर्त्वयविमूढ सा समझ नही पाता हूँ मैं भला स्वयं ही स्वयं को कैसे मार सकता हू और स्वयं को जिताने के लिये, स्वयं कैसे हार सकता हूँ (3) तभी मैं स्वयं ही कृष्ण बन जाता हू स्वयं ही स्वयं को समझाता हूँ यदि इस युद्ध मे दुर्योधन नहीं मरा, तो अनर्थ हो जायेगा पता नहीं ये दुर्योधन कब किस किस दुशासन से, किस कि्स द्रोपदी का 'चीरहरण' ही नहीं 'शीलहरण' तक करवायेगा । यह सोच , मै अन्दर तक काँप जाता हूँ क्योंकि द्रोपदी भी , मै खुद को ही पाता हूँ (4) पर पिछले हर अनुभव से हतोत्साहित, मुझ अर्जुन से अपना गाण्डीव नहीं उठता हे कृष्ण, मै ये युद्ध अब और नहीं कर सकता अपना समय और अपनी ताकत व्यर्थ नहीं कर सकता आपके कहने पर मैने अक्सर अपना गाण्डीव उठाया है तर्क वितर्क का हर तीर भी आजमाया है परन्तु नतीजा वही ढाक के तीन पात ही आया है दिल का 'ये' दुर्योधन ना हारा ना मरा इसे हमेशा जिन्दा ही पाया है हे कृष्ण अगर इस तरह दुर्योधन , मर सकता या मर गया होता तो ये महाभारत कब का खत्म हो गया होता पर ये तो आज भी अपनी मनमानी करता फिरता है, ना इस की सेना ही मरती है , ना ये आप ही मरता है इसलिये प्रभु मुझे अब क्षमा कीजिये और हार स्वीकार कर युद्ध समाप्त करने की अनुमति दीजिये (5) हे अर्जुन, ऐसा नहीं कि मैं कृष्ण ये बात नहीं जानता और ये दुर्योधन नहीं मरने वाला , मै ये भी हूँ मानता फिर भी ये युद्ध समाप्त करने की अनुमति मै नहीं दे सकता क्योंकि एक बात तूँ नहीं जानता। ये युद्ध मेरे द्वारा ही प्रेरित है, और इस युद्ध को जारी रखने में ही हम सब का हित है सोच ना भी मरा दुर्योधन तो कम से कम इस युद्ध मे उलझा तो रहेगा और इस तरह तब तक कई द्रोपदियां बची रहेंगी, हस्तिनापुर भी बचा रहेगा तब मैं अर्जुन, अनमने मन से ही सही, फिर गाण्डीव उठाता हूँ और 'महाभारत अभी जारी है' इसका शंखनाद बजाता हूं

Thursday, February 14, 2008

रैड रोज़ और 'वो'

पैरों से मसलोगी या फिर चूमोंगी होठों से उसे
भेजा तो है हमने तुझे इक गुलाब अभी अभी
सबसे सुर्ख रेड रोज मेरा हो ये सोच कर
खूने जिगर से उसको सींचा था कभी कभी
 उस फूल मे दिल भी मेरा आये तुझे नजर
 दिल के लहू से गुलाब ये रंगा है अभी अभी
 ता उम्र बदली करवटें ना नींद थी न ख्वाब थे
 लगी आँख तो दिखा है तेरा ख्वाब अभी अभी
 ता उम्र मिले जख्म, और अब जाके तुम मिली
 खुदा ने किया चुकता मेरा हिसाब अभी अभी
 बन के सवाल सारी उम्र जो उलझाता रहामुझे
 मिलने से तेरे मिल गया वो जवाब अभी अभी
 समझेंगे अब है प्यार क्या और होती है क्या वफा
लगी हाथ अपने है प्यार की इक किताब अभी अभी