जिस मोड़ पे छोड़ा था साथी तुने हमको
उसी मोड़ पे बैठे हैं तबसे अब तक हम तो
किसी रोज़ ना चाह कर भी पड़ी मेरी जरूरत तो
पाओगे हमे कैसे, ढूंढोगे कहां हम को
जिस मोड़ पे छोड़ा था कई राहें मुड़ती थी
कोई इससे जुड़ती थी कोई उससे जुड़ती थी
चाहता तो मुड़ जाता इस ओर या फिर उस ओर
दरवाजा भले बन्द था कई खिड़कियां खुलती थी
लेकिन ना जाने कयों नहीं ठीक लगा मुड़ना
किसी रोज़ ना चाह कर भी तुम्हें हम से पड़ा जुड़ना
तो पाओगे हमे कैसे ढूंढोगे कहाँ। हम को
जिस मोड़ पे छोड़ा था नीरस था हुआ जीवन
नये सपने बुनने को करने lगा था मन
मन किया बहुत कोई तब गीत नया बुन लूँ
कोई साज नया छेड़ूं सगीत नया सुन लूँ
तन्हाई के आलम में ऐसा भी लगा जायज
कोई प्रीत नयी ढूंढू कोई मीत नया चुन लूँ
जाने क्या सोचके हम कुछ भी नहीं कर पाये
शायद ये रही चाहत कि तूँ ही लौट आये
किसी रोज़ ना चाह कर भी पड़ा लौटना जो तुमको
तो पाओगे हमे कैसे ढूंढोगे कहाँ हमको
उसी मोड़ पे बैठे हैं तबसे अब तक हम तो
जिस मोड़ पे छोड़ा साथी तुने हमको
उसी मोड़ पे बैठे हैं तबसे अब तक हम तो
किसी रोज़ ना चाह कर भी पड़ी मेरी जरूरत तो
पाओगे हमे कैसे, ढूंढोगे कहां हम को
जिस मोड़ पे छोड़ा था कई राहें मुड़ती थी
कोई इससे जुड़ती थी कोई उससे जुड़ती थी
चाहता तो मुड़ जाता इस ओर या फिर उस ओर
दरवाजा भले बन्द था कई खिड़कियां खुलती थी
लेकिन ना जाने कयों नहीं ठीक लगा मुड़ना
किसी रोज़ ना चाह कर भी तुम्हें हम से पड़ा जुड़ना
तो पाओगे हमे कैसे ढूंढोगे कहाँ। हम को
जिस मोड़ पे छोड़ा था नीरस था हुआ जीवन
नये सपने बुनने को करने lगा था मन
मन किया बहुत कोई तब गीत नया बुन लूँ
कोई साज नया छेड़ूं सगीत नया सुन लूँ
तन्हाई के आलम में ऐसा भी लगा जायज
कोई प्रीत नयी ढूंढू कोई मीत नया चुन लूँ
जाने क्या सोचके हम कुछ भी नहीं कर पाये
शायद ये रही चाहत कि तूँ ही लौट आये
किसी रोज़ ना चाह कर भी पड़ा लौटना जो तुमको
तो पाओगे हमे कैसे ढूंढोगे कहाँ हमको
उसी मोड़ पे बैठे हैं तबसे अब तक हम तो
जिस मोड़ पे छोड़ा साथी तुने हमको
2 comments:
बहुत बढिया रचना है
जाने क्या सोचके हम कुछ भी नहीं कर पाये
शायद ये रही चाहत कि तूँ ही लौट आये
किसी रोज़ ना चाह कर भी पड़ा लौटना जो तुमको
तो पाओगे हमे कैसे ढूंढोगे कहाँ हमको
Paramjit Bali ji
Thanks for appreciating the poem. Sir had you given latest photograph it could have been better.
Post a Comment