Friday, March 10, 2017

होना है आखिर वही , जो नियती को मंजूर है

किस मोड़ पर लाकर खड़ा किया है तूने ज़िंदगी
अपनी ज़मीन भी खो गयी और आसमाँ  भी दूर है

कसमसाने के सिवा कुछ और कर सकता नही
आदमी किस्मत के हाथों किस कदर मज़बूर है

इश्क के बाजार में कुछ तो मिला है हुस्न को
बेवज़ह कहाँ  हुस्न के  चेहरे पे आता नूर है

कसमसाता , फड़फड़ाता छटपटाता   रह गया
हालात के पिंजरे का पंछी किस तरह मज़बूर है

काम के बदले में काम और चीज़ के बदले में दाम
प्यार का नही ये तो व्यापार का दस्तूर है

कामयाबीया नही मिलती बिना नसीब के
अक्ल या  पैसा  तो सबके  पास ही  भरपूर है

जिंदगी की जब भी मैंने की  समीक्षा  पाया ये
ज़िन्दगी और  कुछ नही,  इक बेवफा सी हूर है

लाख कोशिशें तू कर लाख तू चक्कर चला
होना है आखिर वही , जो नियती को मंजूर  है


घर का दरवाज़ा कभी इतना खुला ना छोड़िये

कल तक थे अपने, आज  बेगाने नज़र आने लगे
चेहरे जाने पहचाने से ,अनजाने नज़र आने लगे

वक्त ने ली कैसी करवट देखते ही देखते
कभी ढूंढते थे जो हमें वो हम से कतराने लगे

 कुछ भी तो बदला नही पर कुछ तो बदला है ज़रूर
जिनको समझाते थे हम वो हम को समझाने लगे

आकाश सारा छाना न खाना न ठिकाना मिला
थक हार के परिन्दे  वापिस घर को है जाने लगे

धरती को  प्यासा रखने की  बादलों ने खायी है कसम
आसमान पे किस लिए  बादल   हैं फिर छाने लगे

पूछा वजह है क्या भला  ऐसा करने की हज़ूर
इधर उधर की बात कर वो मुझ को बहकाने लगे

मानने को मान भी लेता तेरी हर बात मैं
पर तुम तो उंगली के इशारों पे ही नचाने लगे

चाँद अब तो निकला  है पर जाने कब छुप जाएगा
नादान  बन कर क्यों दीया,  तुम घर का बुझाने लगे

वैसे भी तो  ऎसी महफ़िल से  हासिल क्या होना है
जिसका साकी बूँद  बूँद को भी तारसाने लगे

घर का दरवाज़ा कभी इतना खुला ना छोड़िये
दोस्ती की आड़  में दुश्मन ना घर आने  लगे

रस  के प्यासे भँवरे की बदनसीबी देखिये
फूलों की जगह चमन में  कांटे उग आने लगे

मैं तो मरीज़- ऐ- इश्क हूँ मेरा सकून तेरा इश्क था

धरती प्यासी रहनी है और बादल  को  बरसना ही  नही
तो आसमा पर फिर ये बादल छाये क्या ना छाये क्या

 ना दवा ना दुआ ना  करनी मरीज़ की सेवा 
हाल पूछने मेरा तुम आये क्या ना आये क्या

मैं  तो मरीज़ -ऐ-  इश्क हूँ मेरा सकून तेरा इश्क था
सामान ऐशो आराम के तुम लाये क्या ना लाये क्या

ज़िंदगी हमने  गुजार दी  सिर्फ अंधेरो में हज़ूर
अब कब्र पे मेरी दीये कोई जलाये क्या ना जलाये क्या

रातें  भी गुजरी अकेले,   दिन भी अकेले ही  कटे
अब जनाजे पर मेरे कोई आये क्या ना आये क्या

जब चाँद मिलना ही नही तो चाँद की तमन्ना  क्यों
जो चीज़ अपनी ही नही वो भाये  क्या ना भाये क्या