Monday, March 17, 2008

तूँ नहीं गर लाश तो कन्धो पे क्यों सवार है

इक दिया बुझ जाये तो दूजा जलाना चाहिये
हर हाल अन्धेरा तुम्हे मन से भगाना चाहिये
 तूँ खुशनसीब है तुम्हे जो छोड गया बेवफा
वैसे तो बेवफा से खुद पीछा छुडाना चाहिये
 जुल्म करके तुम पे, कोई खुश रहे, होने ना दे
कोई सबक तो तुम्हे उसको सिखाना चाहिये
 तूँ मेरा साथ दे ना दे लेकिन मै साथ हूं तेरे
 इक इशारा तेरा मुझ तक पहुंच जाना चाहिये
 मजिल अलग रस्ते जुदा पर ऐसा कुछ करे खुदा
 हर मोड़ पे तेरा मेरा, रस्ता मिल जाना चाहिये
 मन्जिल या रस्ता हो कोई बस तूँ हो मेरा हमसफर
इस नामुमिकन को तुझे मुमकिन बनाना चाहिये
 गर तूँ नहीं है लाश तो कन्धो पे क्यों सवार है
अपना बोझ अपने ही, पैरों पे आना चाहिये

3 comments:

Anonymous said...

तूँ नहीं गर लाश तो कन्धो पे क्यों सवार है
अपना बोझ अपने ही पैरों पे आना चाहिये

बहुत ही बढ़िया सर जी

Keerti Vaidya said...

तूँ खुशनसीब है तुम्हे जो छोड गया बेवफा
वैसे तो बेवफा से खुद पीछा छुडाना चाहिये

ati utam......

परमजीत सिहँ बाली said...

वाह! बहुत बढिया लिखा है।
मजिल अलग रस्ते जुदा पर ऐसा कुछ करे खुदा
हर मोड़ तेरा और मेरा रस्ता मिल जाना चाहिये