Monday, March 31, 2008

स्वर्ग की ये अप्सरा धरती पे कैसे आ गयी

चान्द बोला मुझसा सुन्दर है कोई दूजा बता मुझसे मिलती है धरा को चान्दनी जैसी छटा तारे बोले हमसा सुन्दर है कहाँ कोई दूसरा तारों भरे आकाश से सुन्दर नजारा और क्या फूल बोले हम हैं सुन्दर हम से महका ये जहाँ बोला गुलाब मुझ सा रंग रूप मिलता है कहाँ मन मेरा तब कल्पना की वो उडान भर गया चान्द से भी सुन्दर चेहरे का तसुव्वर कर गया गुलाब से भी शोख रंग रूप उसका सोच डाला आँखे गहरी झील सी जो उतरा बस उतर गया नयना कजरारे मिले तो इतने कजरारे मिले नयनों में काजल लगा तो और काला पड गया जुल्फें इतनी रेशमी ढूंढी कि सर पे जब कभी डाला दुपटटा बाद मे पहले नीचे सरक गया माथे पे बिन्दी की जगह इक उगता सूरज धर दिया होठों को वो मिठास दी जिसने चखा वो तर गया देखते ही देखते लाजवाब सूरत बन गयी चेहरे पे नूर इतना कि सूरज भी फीका पड गया बस अब धडकने के लिये इक दिल की मुझे तलाश थी उस की जगह पे मैने अपने दिल का टुकडा धर दिया इस इरादे से कि हर शै से वो सुन्दर बने सारे जहाँ की सुन्दरता इक चेहरे में ही भर गया मैं तो अपनी सोच में कुछ और था बना रहा मुझ को क्या खबर थी तेरा अक्स है उभर गया देख के सूरत तेरी चान्द भी शरमा गया और गुलाब के भी माथे पर पसीना आ गया रंग रूप देख तेरा मेनका घबरा गयी स्वर्ग की ये अप्सरा धरती पे कैसे आ गई अच्छे बुरे नसीब का पैमाना क्या है तय हुआ ये बात हर इक शख्स को तुझे देख समझ आ गई बदनसीब वो हुआ तू जिससे दूर हो गई वो खुशनसीब हो गया तूँ जिसके पास आ गई

4 comments:

Anonymous said...

न अक्स टूटा और न घरौदे भरे
ये स्वर्ग की अप्सरा कहाँ आई
बहुत बढ़िया

Krishan lal "krishan" said...

शुक्रिया कविता को पसन्द करने के लिये यमराज जी,
मेरे इस ब्लाग पर आपका स्वागत है। कृ आते रहें

Keerti Vaidya said...

bhut badiya likha hai

Krishan lal "krishan" said...

shukriya. keerti ji