जाने क्यों
कुकरमुत्ते की तरह
उग आती है महत्वाकाँक्षायें
और अचानक धारण कर लेती है
रूप एक विशाल वट वृक्ष का
जो ढक लेता है सारा आकाश
उसके लिये
जो बैठा होता है इसके नीचे
उसे दिखता है तो बस ये वट वृक्ष
और मानने लगता है कि यही है दुनिया
जाने क्योँ हमे अहसास ही नही होता
कि पूरी नही होती किसी की भी सारी इच्छायेँ
किसी से भी सारी अपेक्षायें
चाह कर भी अनु्त्तरित रह जाती है प्रार्थानायें
कहीं ऐसा तो नहीं हम जाते हैं
भूल जीवन का वो पहला उसूल
कि यहाँ क्रय शक्ति से अधिक कुछ नही प्राप्त होता
चाहे कोई हंसता रहे या रोता
जाने क्यो हम चाहने लगते है
कि कोई हमें चाहे प्यार करे ,सराहे
और पूरी करे वो हर अपेक्षा जो हमे उससे है
पर है अक्सर भूल जाते अपनी विवशता अपनी असमर्थता
जब हम किसीकी अपेक्षायें पूरी नही कर पाते
जाने क्यों भूल जाते हैं
हर नदिया समुद्र तक नही पहुँचती
समुद्र मिलन से पहले ही हो जाती है विलुप्त
चलते चलते राह मे
एक अधूरी आस लिये पिया मिलन की
पर जी जाती है एक पूरा जीवन जीवन
जो जन्म और मृत्य के बीच कहलाता है सफर
जाने क्योँ जब सान्झ लगती है ढलने
अन्धेरा लगता है रोशनी को धीरे धीरे निगलने
रोशनी क्यों नहीं चीखती चिल्लाती
क्योँ उसे मान लेती है अपनी नियति
और कर देती है अन्धकार के आगे अनचाहा समर्पण
शायद ये सोच कि कल फिर सुबह होगी
उग आती है महत्वाकाँक्षायें
और अचानक धारण कर लेती है
रूप एक विशाल वट वृक्ष का
जो ढक लेता है सारा आकाश
उसके लिये
जो बैठा होता है इसके नीचे
उसे दिखता है तो बस ये वट वृक्ष
और मानने लगता है कि यही है दुनिया
जाने क्योँ हमे अहसास ही नही होता
कि पूरी नही होती किसी की भी सारी इच्छायेँ
किसी से भी सारी अपेक्षायें
चाह कर भी अनु्त्तरित रह जाती है प्रार्थानायें
कहीं ऐसा तो नहीं हम जाते हैं
भूल जीवन का वो पहला उसूल
कि यहाँ क्रय शक्ति से अधिक कुछ नही प्राप्त होता
चाहे कोई हंसता रहे या रोता
जाने क्यो हम चाहने लगते है
कि कोई हमें चाहे प्यार करे ,सराहे
और पूरी करे वो हर अपेक्षा जो हमे उससे है
पर है अक्सर भूल जाते अपनी विवशता अपनी असमर्थता
जब हम किसीकी अपेक्षायें पूरी नही कर पाते
जाने क्यों भूल जाते हैं
हर नदिया समुद्र तक नही पहुँचती
समुद्र मिलन से पहले ही हो जाती है विलुप्त
चलते चलते राह मे
एक अधूरी आस लिये पिया मिलन की
पर जी जाती है एक पूरा जीवन जीवन
जो जन्म और मृत्य के बीच कहलाता है सफर
जाने क्योँ जब सान्झ लगती है ढलने
अन्धेरा लगता है रोशनी को धीरे धीरे निगलने
रोशनी क्यों नहीं चीखती चिल्लाती
क्योँ उसे मान लेती है अपनी नियति
और कर देती है अन्धकार के आगे अनचाहा समर्पण
शायद ये सोच कि कल फिर सुबह होगी
2 comments:
बढिया जी । सन्तुष्ट जीवन जीने का पूरा फन्डा है
हरिमोहन सिह जी
आप्का ब्लाग पर स्वागत है कृप्या सनेह बनाये रखें
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