Tuesday, June 30, 2009

देखे है आसमा मे जब से उडते परिन्दे

दामन छुडाने मे ना हो तकलीफ़ किसी को
हमने कफ़न तन्हाई का खुद ओढ लिया है

महफिल मे जाके भी हमें तन्हा ही रहना है
ये सोच महफिलों मे जाना छोड दिया है

ना आगे ना पीछे ना कोई साथ है मेरे
रिश्तों की लाशें जब से ढोना छोड दिया है

इन जहाँ वालो की परवाह कौन करता था
 ग़म  है तो बस   इतना  की तुमने  छोड दिया है

इक रिश्ता ए उम्मीद बचा था किसी तरह
क्यों आखिरी रिश्ता भी आज तोड दिया है
नफरत करे तुमसे ना जब हमसे हुआ मुमकिन
किसी तरह बस प्यार करना छोड दिया है
जब भी लगा मन्जिल कोई नसीब मे नही
राहों को हमने खुद ही नया मोड दिया है
डूबना उस कश्ती की तकदीर बन गयी
माझी ने जिसे बीच भवर छोड़ दिया है
और ना बढ जाये मिटती प्यास इस दिल की
अब खाली जाम होठो से लगाना छोड दिया है
देखे है आसमा मे जब से उडते परिन्दे
 पिन्जरे को अपना घर समझना छोड दिया है

पंखो को मेरे बांध कर सब ने कहा उडो
हकीकत से किस कदर मुँह सबने मोड़ लिया है
इतनी बडी सजा के तो हकदार हमने थे
ये किसका गुनाह नाम मेरे जोड दिया है

अब तो दवा लाना तेरा बेकार हो गया
कब का मरीजे ए इश्क ने दम तोड़ दिया है

1 comment:

ओम आर्य said...

जिन्दगी भी कुछ अजीब होती है ...........कई तरह के रंग दिखाती है ............जिन्दगी एक मृग मारीचिका की तरह ही होती है............आभार