Friday, May 2, 2008

जब कोई मुस्का के मिलने लगता है

जब कोई मुस्का के मिलने लगता है
 अपनो से भी ज्यादा अपना लगता है
 फिर मेरे आँगन मे कोई चाँद उतरने लगता है
 फिर ये मन का पंछी ऊँचे गगन मे उडने लगता है
 फिर इस ठूंठ की डाली डाली कोंपल फूटने लगती है
 फिर मुरझाये पौधो मे कोई फूल निकलने लगता है
 फिर सूखे खेतो में जैसे पानी पडने लगता है
 फिर बीजों से जैसे कोई अंकुर फूटने लगता है
 कया नही जानता बीज जमीं में पडे पडे सड जाते है
 नही पता क्या बादल अक्सर बिन बरसे उड जाते हैं
 फिर भी नील गगन में जब कोई बादल दिखने लगता है
 मुझ को मन की धरा पे बहता दरिया दिखने लगता है
 हर पल यूँ लगता है बादल अब बरसा कि तब बरसा
 कैसा भी हो मौसम मुझ को सावन लगने लगता है
 और कोई हंस कर जब मुझको कहने लगता है अपना
नयनो में बसने लगता है फिर से एक नया सपना
फिर से सारे रिश्ते मुझको सच्चे लगने लगते हैं
क्या अपने क्या बेगाने सब अपने लगने लगते हैं
 व्यापारियों की इस दुनिया में मै प्यार ढूंढता फिरता हूँ
सब कह्ते है नहीं मिलेगा बेकार ढूंढता फिरता हूँ

3 comments:

Keerti Vaidya said...

wah.....great poem...payar ke beej ase he panptey hai bin janey ke samney wala bhi uski kimat samjhta hai ke nahi....

chahye samney wala sach mein pather he ho ek vayapari ...

डॉ० अनिल चड्डा said...

अच्छा प्रयास । बधाई । पर जितनी शिद्दत से पल्लवी त्रिवेदी की कविताओं पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हो, हमें भी तो लगे हमारे लिये भी वैसे ही प्रतिक्रिया आयेगी । या फिर हम उस केटेगिरी में नहीं आते !!

Udan Tashtari said...

बढ़िया है.