Monday, June 30, 2008

ये कैसी तरक्की है जो हम आप हैं करने लगे

धीरे धीरे आजकल क्यों रिश्ते सब मरने लगे
 ये कैसी तरक्की है जो हम आप हैं करने लगे
 थाली किसीकी खाली है हुआ करे किसी को क्या
आजकल तो सब के सब अपना घर भरने लगे
 अपने और बेगानो मे नहीं फर्क कुछ बाकी बचा
दोनो बचाने की जगह बेडा गरक करने लगे
 रात भर कोई सिसकिया लेता रहा लेता रहे
उसके पडोसी रात भर खर्राटे तक भरने लगे
 अपना भला बुरा लगे अब सोचने हम इस कदर
 अपने हित की खातिर दुनिया का बुरा करने लगे
 मालिक का हो कि गैर का बस खेत हरा चाहिये
 आजकल सारे गधे चारा हरा चरने लगे
 बुद्धि मिली दिल खो गया पढलिख के बस इतना हुआ
 तरक्की तो करने लगे पर सोच मे गिरने लगे

4 comments:

Advocate Rashmi saurana said...

itne kam sabdo me sahi bat kahane ke liye badhai. sundar. likhate rhe.

Krishan lal "krishan" said...

Rashmi saurana ji
aapka dhanyawaad kavita ko pasand karane aur us par prbhaavshaali dhang se tippani karne ke liye. Please continue patronising the blog.

Udan Tashtari said...

बुद्धि मिली दिल खो गया पढलिख के बस इतना हुआ
तरक्की तो करने लगे पर सोच मे गिरने लगे


-बढ़िया है.

Krishan lal "krishan" said...

Smiir ji

kavita ko pasand karne ke liye bahut bahut dhanyawaad.