Wednesday, November 19, 2008

इन्सा की कोई कद्र नहीं ओर पत्थर पूजते फिरते हो

भूखा प्यासा ठुकराया सा जीना भी कोई जीना हॆ
चुपडी ना सही रूखी तो मिले मतलब तो हॆ खाने से
 फिसलन भरी राहों में अक्सर कदम फिसल ही जाते हॆं
 किसे नहीं मालूम सभलना बेहतर हॆ गिर जाने से
 जिन राहों मे फिसलन हो वहां कदम संभल के रखना तुम
 संभल के चलना ह्यी बेहतर हॆ गिर कर के पछताने से
 बाज़ार नहीं उतरा तो क्या पता कि कीमत कितनी हॆ
 हासिल क्या हॆ हॆ घर बॆठे खुद अपने दाम लगाने से
 इस जान के जाने से ही तेरे दर पे आना छूटेगा
 दुआ करो मरने की मेरे गर तंग हो मेरे आने से
 आग नहीं जो डाल के पानी बुझा रहे तुम इसको
 ये इश्क हॆ ऒर भी भडकेगा कहां दबता हॆ ये दबाने से
 ये दामन का दाग नहीं जो धोने से मिट जायेगा
 इक बार लगा जो इज्जत पे तो मिटता नहीं मिटाने से
 ये आदम का बच्चा हॆ ठोकर खाकर ही सीखेगा
कहां समझता हॆ कोई ऒरो के समझाने से
 इन्सां की कोई कद्र नही ऒर पत्थर पूजते फिरते हो
 कहां तुझे रब मिलना हॆ यूं उल्टे रस्ते जाने से

2 comments:

"अर्श" said...

ये आदम का बच्चा हॆ ठोकर खाकर ही सीखेगा
कहां समझता हॆ कोई ऒरो के समझाने से

bahot khub likha aapne .....bahot sundar.... dhero badhai aapko.

संगीता पुरी said...

बहुत ही अच्‍छी रचना है।