Friday, May 29, 2009

जा के "खुदा" वो बन बैठे इन्सान जो ना बन पाये कभी


कोई तो हुनर में माहिर है वरना ये कैसे मुमकिन है
 घर सब के जला के राख करे और उस पे आँच ना आये कभी

हम ने तो जब भी कोशिश की घर किसीका रोशन करने की
 चिराग जला, पर जलने से, हाथ अपने बचा ना पाये कभी

 वो ऐसी अदा से पोंछता है किसी आँख के बहते हुए आँसु
 अपने आंचल का कोना भी गल्ती से भीग ना जाये कभी

हम ने तो अपने आंचल से किसी आँख के आँसु जब पोंछे
आंचल गीला कर आए कभी आँखो में नमी भर लाए कभी

अपना तो इरादा इतना था कि इक "अच्छा" इन्सान बने
कई बार गिरे कई बार उठे पर पूरा संभल ना पाये कभी

कोई गुण बदला कि ना बदला ,चेहरा बदला ,चोला बदला
 और जा के "खुदा" वो बन बैठे इन्सान जो ना बन पाये कभी

1 comment:

रंजना said...

Waah !!!!

Bahut hi umda !!