ना मै जानू ना तू जाने
मन करता है मन की हर इक बात तुम्हे बतलाऊँ
अपनी किताब ए दिल का इक इक पन्ना तुम्हें पढाऊँ
मन करता है बचा हुआ हर पल तुझ पे ही लुटाऊँ
तेरे लिये ही जिन्दा रहुँ और तेरे लिये मर जाऊँ
लेकिन ऐसा क्यो होता है क्यों होता है ऐसा
ना तो मै ही समझ सका ना ही तू कुछ जाने
मन की बाते मन ही जाने
ना मै जानू ना तूं जाने
मुझे पता है मुझे खबर है तुझ मुझ मे जो अंतर है
और ये अंतर मिटा सकूँ नही कहीं कोई मंतर है
मुझ को है मालूम कि मन्जिल नही मुझे मिलनी है
मुझ को तो मीलों राहें कुछ पाये बिना चलनी है
फिर भी ये मन ढूंढे तुझ को पा लेने के बहाने
क्यों होता है ऐसा ,ऐसा क्यों होता है
ना मै जानू ना तू जाने
मन की बातें मन ही जाने
2 comments:
मन की थाह कौन है पाया....
आपने अच्छा पढ़वाया...
मन को हमारे खूब भाया...
mujhe bahut pasand aayi post
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