Thursday, July 16, 2009

क्श्ती कोई किनारे क्यों लगती नही है अब

पहले सा प्यार करने वाले दिल नही रहे
या हम किसी के प्यार के काबिल नही रहे

क्श्ती कोई किनारे क्यों लगती नही है अब
माझी नहीं रहे या फिर साहिल नही रहे

तुमने तो"ना "ही कहनी है हर एक सवाल पर
अब तेरे जवाब जानने मुश्किल नही रहे

दु:ख मे शरीक होना महज रस्म बन गया
दुख बांटने वाले उनमें शामिल नही रहे

पढ लिखके सीखा क्या बता खुदगर्जी के सिवा
और मानने लगे कि अब जाहिल नहीं रहे

कोई इश्क से कहो उतारे नजर हुस्न की
सुनते हैं उनकी गालों पे अब तिल नहीं रहे

 सुर्खो सफेद मिटटी की मूरत ही तो बची
 गर हुस्न मे जज्बात कुछ शामिल नही रहे

 साकी रहे, मीना रहे और जाम रहना चाहिये
 महफिल रहे या फिर कोई महफिल नही रहे

2 comments:

Vinay said...

बहुत अच्छी ग़ज़ल है
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गुलाबी कोंपलें · चाँद, बादल और शाम

Anonymous said...

हम किसी के प्यार के काबिल नही रहे
अब तेरे जवाब जानने मुश्किल नही रहे

दु:ख मे शरीक होना महज रस्म बन गया
दुख बांटने वाले उनमें शामिल नही रहे

bahut badiya...