Thursday, July 23, 2009

कितनी तकलीफ हुई होगी, सोचो तो जरा

कितनी तकलीफ हुई होगी, उस शख्स को, तुम सोचो तो जरा
 जिसे सफर के अन्त में पता चले वो जितना चला बेकार चला
 मन्जिल हो अभी भी दूर खड़ी , और खत्म हुआ जिसका रस्ता
 मन्जिल ने हो जिस राही से कहा, नादान, तूँ नाहक दौड़ा किया
 मुझ तक कोई राह नहीं आती , तूँ मुझ तक पंहुच नहीं सकता
 मेरे चारों और मीलों खाई, कोई जिसको लाँघ नहीं सकता
 राही भी अजब दीवाना था , अपनी धुन में मस्ताना था
उस राही ने मन्जिल से कहा, काहे को रही इतना इतरा
जिस हद तक आता था रस्ता, उस हद तक तो मैं आ पंहुचा

तुम चाहती तो बाकी दूरी पल भर में ही मिट सकती थी
इक कदम बढ़ाना था तुमको, मुझको मन्जिल मिल सकती थी
 लेकिन तुमने चाहा ही नहीं, मेरे चाहने से होना था क्या
 आगे का सफर संभव ही नहीं ना तुम चाहो , ना चाहे खुदा,
आया तो बड़ी चाहत से था अबअनचाहे मन लौट चला
फिर भी तेरे जीवन में कभी इतना सूनापन आ जाये
 ना राह दिखे ना राही ही और तूँ खुद से घबरा जाये
 तब अहम किनारे पे रख के इक बार पुकारना धीरे से
 उस रोज भी तेरा दिवाना , तेरे आसपास मिल जायेगा
वीरान पड़ी तेरी राहों का, फिर से राही बन जायेगा
 आखिर तो तेरा दीवाना है तुझ पे ही जान लुटायेगा

1 comment:

संगीता पुरी said...

वाह !! सुंदर रचना !!