Friday, January 29, 2010

मेरे क़त्ल की साजिश, वही, रचते रहे है रात भर

किसके लिए और किसलिए रोये हम रात रात भर
 तुम रही खामोश या तेरी कही किसी बात पर
 
 बन के बदली तुम बरस जाती तो करते शुक्रिया
 वैसे गुजारिश के सिवा मेरा बस कहाँ किसी बात पर
 
 ज़िन्दगी भर ही हसीनो ने हमें धोखा दिया
 तुम्ही कहो कैसे भरोसा कर लूँ औरत जात पर
 
 कोशिश भी की काबिल भी थे लेकिन ना हासिल कुछ हुआ
 कामयाबी की लकीरे ही ना थी मेरे हाथ पर
 
 इससे से ज्यादा क्या हमारी बेबसी होगी सनम
 हमदर्द मिला है वो जो जख्म देता है बात बात पर
 
देख कर ज़िंदा मुझे हैरान क्यों होते हैं सब
हैरान हैं  शायद ये शख्स ज़िंदा है किस बात पर

मेरी लम्बी उम्र की जो दिन में  करते है दुआ
 क़त्ल की मेरे वो साजिश रचते रहे है रात भर
इक सवाल रोटी का हम से कभी ना हल  हुआ
फख्र था बड़ा हमें हिसाब की किताब पर