Friday, November 26, 2010

तेरा पहलु से उठ जाना कभी अच्छा नही लगता

खुदा तकलीफ तेरी कम अगर करता भी तो कैसे
यूं भी तकलीफ होती है यूं भी तकलीफ होती है

 तेरा पहलु से उठ जाना कभी अच्छा नही लगता
 बना के दूरियां बैठो तो भी तकलीफ होती है

 किसी का जब मरा कोई तसल्ली दी तसल्ली दी
मगर मरता है जब अपना बहुत तकलीफ होती है


 यहाँ रिश्तो के मरने की कोई परवाह नही करता
 फिर रिश्तेदार मरने पे कहाँ तकलीफ होती है

 तेरा आना ना आना एक सा अब तो लगा लगने
 वो भी तकलीफ देता है यूँ भी तकलीफ होती है

 तेरा दामन कोई पकडे तो क्या जाने क्या हो जाए
 तेरा कोई नाम भी लेले तो भी तकलीफ होती है

ना जाने किस कदर तू दिल के हर कोने आ पहुंचा
 भुलाऊं या करूं तुझे याद बहुत तकलीफ होती है

2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत खूब..

आशीष मिश्रा said...

सुन्दर प्रस्तुति