शीशा ही नही टूटा, अक्स भी टूटा है । पत्थर किसी अपने ने बेरहमी से मारा है॥ जो जख्म है सीने पे दुश्मन ने लगाये हैं। पर पीठ में ये खंजर अपनो ने उतारा है।
Tuesday, June 3, 2008
तुम ही क्योँ नही समझ जाती जो नहीं कहा है मैने
पता नही क्यों
जम जाते है स्वर नली मे
वो सारे शब्द
जिन्हे रात भर अपने प्यार की गर्मी से
रखता हूँ गर्म ताकि उगल सकूँ उन्हे
ज्यों का त्यों
अगर और कुछ ना भी कह सकूँ तुम से
जब तुम मिलो सुबह
रेलवे फाटक के उस पार
कालिज जाते हुये
पता नही क्यों
खडा रह्ता हूँ जडवत
घन्टो
तुम्हारे इन्त्जार मे
सारी शक्ति कहाँ खो जाती है
शरीर क्यों हो जाता हैं निढाल
ठीक उस क्षण
जब तुम आने ही वाली होती हो
लगता है कमजोर पड रही है
पाँव तले की जमीन
और मै अकस्मात चल पडता हूँ
वहाँ से
बिना तुम्हे मिले
बस ये सोच कर
कि कल फिर एक बार
करूँगा कोशिश वहाँ पर टिके रहने की
उन जमे हुये शब्दो को बाहर निकालने की
पता नही क्यों
मुझे पता है
कि नहीं होगा कुछ भी कल
आज से ज्यादा
फिर तुम ही क्यों नही समझ जाती
जो नही कहा है मैने
या क्यों नही
अपने प्यार की गर्मी मिला देती
मेरे प्यार की गर्मी मे
तकि उस गर्मी से पिघल सके वो शब्द
जो जम जाते है
जब भी तुम सामने होती हो
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2 comments:
bahut sundar..
shayad is sandarbh mein bahuton ke man ki baat ek si hi hoti hai...
जी अल्पना वर्मा जी
आप ने एक दम सही कहा इस स्न्दर्भ मे बहुतो के मन की बात एक सी ही होती है। बस कहने का अन्दाज और समय अलग हो सकता है।
अब आप ही देखिये कब की यादे कब जाकर उभरी है यानि कि वो कहते है ना कि "दर्द कब जा के उठा चोट लगे देर हुई॥
नज्म पसन्द करने के लिये हृदय से आपका आभारी हूँ
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