शीशा ही नही टूटा, अक्स भी टूटा है । पत्थर किसी अपने ने बेरहमी से मारा है॥ जो जख्म है सीने पे दुश्मन ने लगाये हैं। पर पीठ में ये खंजर अपनो ने उतारा है।
Sunday, January 11, 2009
काश तुम ही समझ जाती
पता नही क्यों
जम जाते है स्वर नली मे
वो सारे शब्द
जिन्हे
रात भर अपने प्यार की गर्मी से
रखता हूँ गर्म
ताकि उगल सकूँउन्हे
ज्यों का त्यों
अगर और कुछ ना भी कह सकूँ
तुम से
जब तुम मिलो सुबह
रेलवे फाटक के उस पार
कालिज जाते हुये
पता नही क्यों
खडा रह्ता हूँ जडवत
घन्टो तुम्हारे इन्त्जार मे
सारी शक्ति कहाँ खो जाती है
शरीर क्यों हो जाता हैं निढाल
ठीक उस क्षण
जब तुम आने ही वाली होती हो
लगता है कमजोर पड रही है
पाँव तले की जमीन
और मै अकस्मात चल पडता हूँ
वहाँ से
बिना तुम्हे मिले
बस ये सोच कर
कि कल फिर एक बारकरूँगा कोशिश
वहाँ पर टिके रहने की
उन जमे हुये शब्दो को
बाहर निकाल कहने की
पता नही क्यों
मुझे पता है
नहीं होगा कल कुछ भी
आज से ज्यादा
कोई अर्थ नही रखता
मेरा आज का पक्का इरादा
फिर
तुम ही क्यों नही समझ जाती
जो नही कहा है मैने
या क्यों नही
अपने प्यार की गर्मी मिला देती
मेरे प्यार की गर्मी मे
तकि उस गर्मी से पिघल सके वो शब्द
जो जम जाते है
जब भी तुम सामने होती हो
काश तुम ही समझ जाती
"वो"
जो नही कहा है मैने
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2 comments:
आपकी शृंगार रस कविताओं के हम बड़े रसिया हैं
---मेरा पृष्ठ
तख़लीक़-ए-नज़र
इस रसिया वाले मिजाज़ में मैं भी हूँ काश के वो समझ जाती....
अर्श
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