शीशा ही नही टूटा, अक्स भी टूटा है । पत्थर किसी अपने ने बेरहमी से मारा है॥ जो जख्म है सीने पे दुश्मन ने लगाये हैं। पर पीठ में ये खंजर अपनो ने उतारा है।
Tuesday, January 27, 2009
तुम अगर चाहती तो हालात बदल सकते थे
तुम अगर चाहती तो हालात बदल सकते थे
थाम गर लेती तो गिरने से संभल सकते थे
मेरे चाहने से बदलना था नही इक पल भी
तुम जो चाहती तो ये दिन रात बदल सकते थे
माना था दिन की हकीकत का बदलना मुश्किल
अपनी रातों के तो हम ख्वाब बदल सकते थे
तुम तो ठहरी रही इक मील के पत्थर की तरह
वरना हम राही कहां आगे निकल सकते थे
मेरे किसी दर्द का अहसास तुझे होता अगर
मेरे आंसू तेरी आँखों से निकल सकते थे
अब किसी शै से बहलता नहीं दिल इक पल भी
पर तेरे बहलाने से ता-उम्र बहल सकते थे
मेरे लिए तो था ख़ुद को भी बदलना मुश्किल
तुम जो चाहते तो ये कायनात बदल सकते थे
तुम ने कोशिश ही नहीं की कि सहारा दो हमें
वरना हम गिरने से पहले भी सम्भल सकते थे
मेरी चाहत ना बदल पायी तेरी सोच तो क्या
तेरे चाहत से तो मेरे जज्बात बदल सकते थे
सच तो ये है की तुम्हे मेरी जरूरत ही ना थी
वरना घर छोड़ के तुम कैसे निकल सकते थे
चलो अच्छा हुआ तुम साथ नही हो वरना
दिल के अरमान किसी वक्त मचल सकते थे
तुम ने चाहा ही नही चाहने वालो की तरह
चाहने वाले तो हर एक बात बदल सकते थे
तुम अगर चाहती तो हालात बदल सकते थे
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3 comments:
Waah ! Sundar bhavabhivyakti hai.Sundar gajzal ke liye badhai.
तुम ने कोशिश ही नहीं की कि सहारा दो हमें
वरना हम गिरने से पहले भी सम्भल सकते थे
-सही है. उम्दा रचना.
yaar kya dard bhara hai aapne is kavita mein!!!!!!!!!!!!!!!
Bas hum to kayal ho gaye aapke...................
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