Tuesday, December 1, 2009

मत भूलो की हर उड़ान इक रोज जमीं पे उतरनी है

एक उड़ान के भरते ही तुम हमको भुला बैठे हो सनम
 अभी ना जाने तुमको कितनी और उड़ाने भरनी हैं

जाने किस मंजिल पहुंचे जो बात चीत भी बंद हुई
तुमको तो जीवन में ऎसी कई मंजिल तय करनी है

वक्त के मारे इंसा से वैसे भी तुम्हे क्या मिलना था 
मन ग़म से बुझा तन उम्र ढला दो चीजे ही मिलनी हैं

मेरे ग़म को देख के अपनी आँखे नाहक नम ना कर
मेरे कारण अपनी खुशियाँ काहे को कम करनी है

पहली बार तुम दूर गयी तकलीफ कुछ दिल को ज्यादा हुई
 आख़िर तो दूरी सहने की आदत इक दिन हमें पदनी   है

तुम्हे तो उड़ने की खातिर आकाश भी छोटा पड़ता है
मेरे पास तो पांव रख पाने को जमीं ही मिलनी है

मुझ संग रह कर पंख तेरे और भी कम हो जाने थे
और तुझे गगन में उड़ने  की हसरत अभी पूरी करनी है 

औरो से ऊंचा उठने का अहसास सुखद होता है बहुत
पर मत भूलो की हर उड़ान इक रोज़ जमीं पे उतरनी है

2 comments:

Udan Tashtari said...

औरों से ऊंचा उठने का अहसास सुखद होता है बहुत
पर मत भूलो की हर उड़ान इक रोज़ जमीं पे उतरनी है


-सीख देती शानदार रचना!!

RAJNISH PARIHAR said...

बहुत ही उम्दा रचना...शायद आपका अनुभव ही इसकी जान है ,सब कुछ हम सब की ज़िन्दगी से मिलता जुलता सा लगता है...