Tuesday, January 12, 2010

इससे अच्छा था कि नश्तर ही चुभा जाता कोई

ज़ब से वो हम से और उनसे हम मिलने लगे
जिन्दगी के सारे मायने ही बदलने लगे

डर ये है कि फिर नया कोई जख्म ना मिले हमे
 उम्मीद ये कि शायद किस्मत अबसे बदलने लगे

 डर डर के राहे इश्क मे रखना था हर कदम मगर
 इक बार देखा फिर तो कदम खुद ब खुद चलने लगे

 ना कोई चाहत ना थी उम्मीद ही दिल मे कोई
 वो पहलु मे बैठे तो अरमां फिर से मचलने लगे

 अब ये भी घर मे यार का आने में आना है बता
 आये सुबह दो बातें की हुई सांझ तो चलने लगे

 इससे अच्छा था कि नश्तर ही चुभा जाता कोई
 मरहम लगाये बिन क्यों यार वापिस घर चलने लगे

1 comment:

Asha Joglekar said...

अब ये भी घर मे यार का आने में आना है बता
आये सुबह दो बातें की हुई सांझ तो चलने लगे
बहुत पसंद आया ये शेर यू तो पूरी गज़ल ही कूबसूरत है ।