Tuesday, April 15, 2008

एक लबालब प्याले जैसे गम से भरे हुये है लोग

तेरे शहर मे कैसे कैसे भरे हुए हैं लोग
 इक चेहरे पे कई कई चेहरे धरे हुए हैं लोग
 आतंकित है आशंकित है सहमे है घबराये है
हर आहट पे चौंक उठते हैं कितना डरे हुये हैं लोग
 साँसों के आने जाने से बस तन को जिन्दा रखा है
वरना चेहरे बतलाते हैं कि मन से मरे हुए हैं लोग
 हंसने की कोशिश में अक्सर आँख छलक आती है
 इनकी एक लबालब प्याले जैसे गम से भरे हुए है लोग
 मन की बात कभी भी इनके होठों पर नही आ पाती
 गैरों से क्या अपनो से भी कितना डरे हुए है लोग
 इस शहर मे तेरी उलझन कोई क्या समझे क्या सुलझाये
 हर वक्त तो अपनी ही कोई उलझन से घिरे हुए हैं लोग
 जाने कौन है मन्जिल इनकी जाने कहाँ पहुँचना है
जब देखो तब सर पे अपने पाँव धरे हुए है लोग
 मन में कोई उत्साह नहीं जीने की कोई चाह नहीं
अपनी लाश को अपने ही कन्धो पे धरे हुए है लोग
 तेरे शहर का जीना आखिर मुझ को कैसे रास आये
यहाँ अन्दर से सब हुए ठूँठ बाहर से हरे हुए है लोग

6 comments:

Mohinder56 said...

सुन्दर भाव पूर्ण गजल लिखी है आपने... यही सत्य है....
तेरे शहर का जीना आखिर मुझ को कैसे रास आये
यहाँ अन्दर से सब हुए ठूँठ बाहर से हरे हुए है लोग

अमिताभ said...

आतंकित है आशंकित है सहमे है घबराये है
हर आहट पे चौंक उठते हैं कितना डरे हुये हैं लोग

तेरे शहर मे कैसे कैसे भरे हुए हैं लोग

shahar ki pida ko kya khoob vyakt kiya hai aapne !!

Abhishek Ojha said...

यहाँ अन्दर से सब हुए ठूँठ बाहर से हरे हुए है लोग...
वाह !

Krishan lal "krishan" said...

मोहिन्देर कुमार जी, अमिताभ फौजदार जी, और अभिषेक ओझा जी
आप सब का हृदय से आभारी हूँ कृप्या अप्ना स्नेह बनाये रखें और इसी तरह प्रोत्साहित करते रहें पुन: धन्यवाद

Manas Path said...

मन में कोई उत्साह नहीं जीने की कोई चाह नहीं
अपनी लाश को अपने ही कन्धो पे धरे हुए है लोग

Krishan lal "krishan" said...

अतुल जी,
आपने गज़्ल का एक शेर दोहराया तो है परन्तु अपने कमेन्टस नही दिये जिससे ये पता चल सके कि आपको शेर पसन्द आया या नही और अगर आया तो कितना