Monday, April 20, 2009

जिन्दगी क्या है समझने मे गवाँ दी जिन्दगानी

बनती कहाँ है तुम बनाना चाहो जैसी जिन्दगानी
साजिशों का शिकार है बचपन बुढापा और जवानी
अन्त तो शुरूआत मे ही सोच कर चलते हैं सब
फिर उलझ जाती है आकर अन्त मे क्यों हर कहानी
क्या पता किस मोड पर आन्ख मेरी लग गयी
किरदार मनमाने हुये बदल गयी सारी कहानी
कौन जाने अब कहानी का होगा अन्जाम क्या
किरदार सारे लिख रहे अपना रोल अपनी कहानी
मै जानता हू तेरा ही किया कराया है सनम
फिर भी सुनना चाहता हूं तेरा जुर्म तेरी जबानी
परेशानियों ने जब कदम रखा घर की दहलीज पर
झाँकने खिडकी से बाहर लग गयी घर की जवानी
ये समझ वालो की नासमझी नही तो और क्या
जिन्दगी क्या है समझने मे गवाँ दी जिन्दगानी
उसकी इक इक बात पर बजती है सौ सौ तालिया
  कामयाबी खुद सिखा देती है यूँ बाते बनानी

1 comment:

RAJNISH PARIHAR said...

सच में इस जिंदगी को समझने के लिए एक जन्म काफी नहीं है....