Tuesday, April 28, 2009

ये सोच के झोली फैला ना बैठ पेड के तले
 पक के फ़ल इक रोज़ तेरी झोली मे गिर जायेगा

 उसको नही मालूम ये इस बाग का दस्तूर है
पकने से पहले कोई दूजा तोड के ले जायेगा

आज तो तू भीगने से डर रहा है जाने मन
 कल ये बारिशो का मौसम ही नहीं रह जायेगा

भीगने दे तन बदन और बुझने दे मन की अग्न
कौन जाने फिर ये सावन लौट के कब आयेगा

ना तू इस से पहले था ना इसके बाद होगा कभी
जो जी करे सो कर गुजर वरना बहुत पछतायेगा

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

कृष्न जी,बहुत ही बढिया रचना है।बधाई।

आज तो तू भीगने से डर रहा है जाने मन
कल ये बारिशो का मौसम ही नहीं रह जायेगा
भीगने दे तन बदन और बुझने दे मन की अग्न
कौन जाने फिर ये सावन लौट के कब आयेगा