ये सोच के झोली फैला ना बैठ पेड के तले
पक के फ़ल इक रोज़ तेरी झोली मे गिर जायेगा
उसको नही मालूम ये इस बाग का दस्तूर है
पकने से पहले कोई दूजा तोड के ले जायेगा
आज तो तू भीगने से डर रहा है जाने मन
कल ये बारिशो का मौसम ही नहीं रह जायेगा
भीगने दे तन बदन और बुझने दे मन की अग्न
कौन जाने फिर ये सावन लौट के कब आयेगा
ना तू इस से पहले था ना इसके बाद होगा कभी
जो जी करे सो कर गुजर वरना बहुत पछतायेगा
पक के फ़ल इक रोज़ तेरी झोली मे गिर जायेगा
उसको नही मालूम ये इस बाग का दस्तूर है
पकने से पहले कोई दूजा तोड के ले जायेगा
आज तो तू भीगने से डर रहा है जाने मन
कल ये बारिशो का मौसम ही नहीं रह जायेगा
भीगने दे तन बदन और बुझने दे मन की अग्न
कौन जाने फिर ये सावन लौट के कब आयेगा
ना तू इस से पहले था ना इसके बाद होगा कभी
जो जी करे सो कर गुजर वरना बहुत पछतायेगा
1 comment:
कृष्न जी,बहुत ही बढिया रचना है।बधाई।
आज तो तू भीगने से डर रहा है जाने मन
कल ये बारिशो का मौसम ही नहीं रह जायेगा
भीगने दे तन बदन और बुझने दे मन की अग्न
कौन जाने फिर ये सावन लौट के कब आयेगा
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