Monday, July 24, 2017

अपनी खुदगर्ज़ी से खुद घोंटा हर रिश्ते का गला

जितनी सुलझाता हूँ उतनी ही उलझती जा  रही है
ज़िंदगी तेरी पहेली जाने क्या मुझ से चाह रही है

मेरी ज़रूरतें मेरी चाहतें कब की ख़तम सब हो गयी
अब क्या है  जो इस उम्र में मुझको तू देना चाह  रही है

गीली लकड़ियों से सिर्फ धुंआ ही तो निकलना है 
बे वजह तू इनमे आग किसलिए सुलगा रही है

कल तो आने दे  जो कल होगा वो  देखा जायेगा
कल की फिक्र में  आज क्यों बर्बाद करती जा रही है

कभी पूछ मुझ से चाहता हूँ मै  क्या तुझसे  ज़िंदगी
या फिर बता खुल के कि आखिर तू  क्या मुझसे चाह रही है

किस तरह मिलती सफलता कैसे मिलती मंज़िले
तू तो दो  कदम भी चलने से अभी घबरा रही है

जब भी कुछ मांगा तो तेरी न के सिवा कुछ ना मिला
इसके बावजूद भी तू अपना मुझे बता  रही है

अपनी इस करनी पे तुझको होना है इक दिन शर्मसार
आज बेशक अपनी हर हरकत पे तू इतरा  रही है

अपनी खुदगर्ज़ी से खुद  घोंटा  हर रिश्ते  का गला
अब शिकायत है  घुटन जिंदगी में बढ़ती जा रही है

फूल बनने  पर हश्र   तेरा भी देखेंगे कली
आज  डाली पर लगी  तू मुस्करा रही इतरा रही है

सिर्फ शब्दों तक सिमट के प्यार तेरा रह गया
करने के नाम पर  सिर्फ मज़बूरिया  गिनवा रही है

तेरी इस हरकत से तंग  मै खुद  भी तुझको छोड़ता
मेरी जान  तू  तो खुद ही मुठी से फिसलती जा रही है





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