Monday, May 5, 2008

चल छोड़ किनारे को साथी आ आज बीच मझधार चले

चल छोड़ किनारे को साथी, आ आज बीच मझधार चलें
 इस पार तो सब कुछ देख लिया अब देखने कुछ उस पार चलें
 मत सोच कहेगी क्या दुनिया, दुनिया तो कहती रहती है
जो सहज लगे सो जीता जा जैसे कोई नदिया बहती है
 क्या सही ग़लत क्या पाप पुण्य सारी इस पार की बातें हैं
 हर रोज़ जो बद्ले परिभाषा सच मान बेकार की बातें हैं
 आ, छोड़ बेकार की बातों को, करने सपने साकार चलें
चल छोड़ किनारे………
 हर काम किया पर डर डर के, तूं जितना जिया सब मर मर के,
कोई खुशी अगर तूने पाई दुनिया को जो रास नहीं आई
पाई तो खुशी पर डर डर के या मन में ग्लानि को भर के
 उस खुशी से मिलती कहाँ खुशी जो मन में ग्लानि भर जाये
वो कश्ती पार नहीं जाती जिस कश्ती मे पानी भर जाये
 तूँ चेहरे से मुस्काता रहा पर मन मे करता रहा रुदन
अब छोड़ दे ये नकली जीवन और खोल दे मन का हर बंधन
 तन मन दोनों पुलकित हो जहाँ आ ढूंढने वो संसार चले
 कर हिम्मत आ उस पार चलें आ आज बीच मझधार चलें
इस पार तो सब कुछ देख लिया अब देखने कुछ उस पार चलें

1 comment:

Udan Tashtari said...

बढ़िया.