हादसे हद से बढते जा रहे हैं
हम अपने कद में घटते जा रहे हैं
रफू कैसे करुंगा मैं अपना चाक दामन
रफू के साथ ही सुराख बढते जा रहें हैं
बहुत मुश्किल है अब तो नग्न होने से बचना
बदन के वस्त्र तो हर रोज फटते जा रहें हैं
ना जाने कौन मौसम में मुझे ज़ख्मी किया तुमने
कि सारे ज़ख्म ही नासूर बनते जा रहे हैं
समय के साथ भर जाते ज़ख्म कोई गैर जो देता
ये मेरे ज़ख्म तो हर रोज़ बढते जा रहे हैं
दीया बुझाने का इल्ज़ाम ना ले सब्र कर थोड़ा
हवांए तेज हैं दीये खुद ही बुझते जा रहे हैं
हम अपने कद में घटते जा रहे हैं
रफू कैसे करुंगा मैं अपना चाक दामन
रफू के साथ ही सुराख बढते जा रहें हैं
बहुत मुश्किल है अब तो नग्न होने से बचना
बदन के वस्त्र तो हर रोज फटते जा रहें हैं
ना जाने कौन मौसम में मुझे ज़ख्मी किया तुमने
कि सारे ज़ख्म ही नासूर बनते जा रहे हैं
समय के साथ भर जाते ज़ख्म कोई गैर जो देता
ये मेरे ज़ख्म तो हर रोज़ बढते जा रहे हैं
दीया बुझाने का इल्ज़ाम ना ले सब्र कर थोड़ा
हवांए तेज हैं दीये खुद ही बुझते जा रहे हैं
4 comments:
समय के साथ भर जाते ज़ख्म कोई गैर जो देता
ये मेरे ज़ख्म तो हर रोज़ बढते जा रहे हैं
" Aah! dard ke ek anupam preebhasha, bhut sunder"
Regards
सीमा गुप्ता जी
सर्वप्रथम आप का मेरे ब्लोग पर पधारने का बहुत बहुत धन्यवाद
आपको रचना पसन्द आयी मेरा लिखना सफल हो गया। कृप्या ब्लाग पर आते रहियेगा । अच्छा लगेगा
रफू कैसे करुंगा मैं अपना चाक दामन
रफू के साथ ही सुराख बढते जा रहें हैं
-बहुत बढ़िया.
Smir ji
bahut bahut shukriya
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