Friday, May 23, 2008

ना जाने कौन मौसम मे मुझे जख्मी किया तुमने

हादसे हद से बढते जा रहे हैं
 हम अपने कद में घटते जा रहे हैं
 रफू कैसे करुंगा मैं अपना चाक दामन
रफू के साथ ही सुराख बढते जा रहें हैं
 बहुत मुश्किल है अब तो नग्न होने से बचना
 बदन के वस्त्र तो हर रोज फटते जा रहें हैं
 ना जाने कौन मौसम में मुझे ज़ख्मी किया तुमने
 कि सारे ज़ख्म ही नासूर बनते जा रहे हैं
 समय के साथ भर जाते ज़ख्म कोई गैर जो देता
 ये मेरे ज़ख्म तो हर रोज़ बढते जा रहे हैं
 दीया बुझाने का इल्ज़ाम ना ले सब्र कर थोड़ा
 हवांए तेज हैं दीये खुद ही बुझते जा रहे हैं

4 comments:

seema gupta said...

समय के साथ भर जाते ज़ख्म कोई गैर जो देता
ये मेरे ज़ख्म तो हर रोज़ बढते जा रहे हैं
" Aah! dard ke ek anupam preebhasha, bhut sunder"

Regards

Krishan lal "krishan" said...

सीमा गुप्ता जी
सर्वप्रथम आप का मेरे ब्लोग पर पधारने का बहुत बहुत धन्यवाद
आपको रचना पसन्द आयी मेरा लिखना सफल हो गया। कृप्या ब्लाग पर आते रहियेगा । अच्छा लगेगा

Udan Tashtari said...

रफू कैसे करुंगा मैं अपना चाक दामन
रफू के साथ ही सुराख बढते जा रहें हैं

-बहुत बढ़िया.

Krishan lal "krishan" said...

Smir ji
bahut bahut shukriya