Sunday, April 19, 2009

मौत को जालिम ना कह, है जिन्दगी ही बेवफा

मौत को जालिम ना कह, है जिन्दगी ही बेवफा
जान पहले जाती है, तब मौत आती है सदा
मौत आ सकती नहीं गर जाँ ना जाये जिस्म से
जाँ ने साथ छोड़ा तो बाहों मे मौत ने लिया
धीरे धीरे जाँ जिस्म से दूर खुद होती गयी
इल्जाम लेकिन जिन्दगी ने मौत के सर धर दिया
जाँ भी बीवी की तरह ही बेवफा सी हो गयी
जिस्म यूँ छोड़ा बीवी ने छोड़ ज्यों शौहर दिया
धूप का टुकडा कोई जब भी उतरा आसमा से
बाहे फैला के धरती ने आगोश मे अपनी लिया
ये क्या अपनापन हुआ ये क्या प्यार है भला
साथ देना तब तलक ठीक जब तक सब चला
बेवफा खुद होती है बीवी हो या फिर जिन्दगी
सौत को या मौत को बदनाम मुफ्त मे किया

2 comments:

समय चक्र said...

bahut sundar kishan ji .abhaar.

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छी रचना है।बधाई।