Wednesday, April 15, 2009

ठोकर लगने पर समझ आ जाये जरूरी ये नहीं

दोस्त जब अहसान उन्गलियों पे गिनवाने लगे
बेखौफ हम अहसान फरामोश हो जाने लगे
तुम देखना इक रोज ये तस्वीर बदलेगी जरूर
हालात से फिर बेवजह कोई क्यों घबराने लगे
आप तो कहते थे बारिशों का ये मौसम नही
आसमां पे फिर घने बादल हैं क्यों छाने लगे
क्यों मिटा रहा है तूँ राहो से कदमो के निशा
क्या खबर कब कौन वापिस लौट के आने लगे
मानी उसकी बात यूँ जैसे खुदा का हो कहा
बात जब अपनी रखी तो उठके वो जाने लगे
आज पतझड है तो कल बहार आनी है जरूर
क्या हुआ पत्ते अगर शाखों से गिर जाने लगे
मौसम ए बहार माना आयेगा इक दिन जरूर
उनका क्या जो बनके ठूंठ आज गिर जाने लगे
मेरी सूरत आपकी सूरत से कुछ अलग ना थी
आईना सब लोग क्यों मुझको ही दिखलाने लगे
मै गलत ना था मगर कमजोर जब मै पड गया
इल्जाम इक इक कर के सारे मेरे सर आने लगे
ज़िन्दगी उतरी है जिद पे फेल करने को हमे
मुश्किल सवाल सारे मेरे हिस्से हैं आने लगे
ठोकर लगने पर समझ आ जाये जरूरी ये नहीं
हम गिरे गिर कर उठे उसी राह फिर जाने लगे

3 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

Bahut badhiya, fantastic !

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

ठोकर लगने पर समझ आ जाये जरूरी ये नहीं
जरूरी ये है हर कदम हम ही क्यों ठोकर खाने लगे !

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।